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विशेषावश्यकभाष्य
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निवासस्थान हैं अतः उनमें रहने वालों का कोई होना चाहिए । संभव है कि वे रत्नों के गोले ही हों। इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि वे देवों के रहने के विमान ही हैं क्योंकि वे विद्याधरों के विमानों के समान रत्ननिर्मित हैं तथा आकाश में गमन करते हैं।'
सूर्य, चन्द्रादि विमानों को मायिक क्यों न मान लिया जाए ? वस्तुतः ये मायिक नहीं हैं । थोड़ी देर के लिए इन्हें मायिक मान भी लिया जाए तो भी इस माया को करने वाले देव तो मानने ही पड़ेंगे । बिना मायावी के माया संभव नहीं। दूसरी बात यह है कि माया तो कुछ ही देर में नष्ट हो जाती है जबकि उक्त विमान सर्वदा उपलब्ध होने के कारण शाश्वत हैं । अतः उन्हें मायिक नहीं कहा जा सकता।
देवों के अस्तित्व की सिद्धि के लिए एक हेतु यह भी है कि इस लोक में जो प्रकृष्ट पाप करते हैं उनके लिए उस फलभोग के हेतु नारकों का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है उसी प्रकार प्रकृष्ट पुण्य करने वालों के लिए देवों का अस्तित्व भी स्वीकार करना चाहिए।
यदि देव हैं तो वे स्वरविहारी होते हुए भो मनुष्य-लोक में क्यों नहीं आते ? सामान्यतः देव इस लोक में इसलिए नहीं आते कि वे स्वर्ग के दिव्य पदार्थों में हो आसक्त रहते हैं, वहाँ के विषयभोग में ही लिप्त रहते हैं । उन्हें वहीं के काम से अवकाश नहीं मिलता। मनुष्य-लोक की दुर्गन्ध भी उन्हें यहाँ आने से रोकती है
और फिर उनके यहाँ आने का कोई विशेष प्रयोजन भी तो नहीं है । ऐसा होते हुए भी कभी-कभी वे इस लोक में आते भी हैं। तीर्थंकर के जन्म, दीक्षा, केवलप्राप्ति, निर्वाण आदि शुभ प्रसंगों पर देव इस लोक में आया करते है । पूर्व भव के राग, वैर आदि के कारण भी उनका यहाँ आगमन होता रहता है।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने मौर्यपुत्र का देव विषयक संशय दूर किया और उन्होंने अपने साढ़े तीन सौ शिष्यों सहित भगवान् से दीक्षा ले ली। नारकों का अस्तित्व :
मौर्यपुत्रपर्यन्त सबको दीक्षित हुए जानकर अकंपित भी महावीर के पास पहुँचे । महावीर ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा-अकंपित ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि नारक हैं या नहीं ? इस संशय का समाधान इस प्रकार है:
प्रकृष्ट पापफल का भोक्ता कोई न कोई अवश्य होना चाहिए क्योंकि वह भी जघन्य-मध्यम कर्मफल के समान कर्मफल है। जघन्य-मध्यम कर्मफल के भोक्ता तिथंच तथा मनुष्य हैं । प्रकृष्ट पापकर्मफल के जो भोक्ता हैं वे ही नारक हैं । १. गा० १८७२. २. गा० १८७३. ३. गा० १८७४. ४. गा० १८७५-७. ५. गा० १८८४. ६. गा० १८८५-७. ७. गा० १८९९.
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