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विशेषावश्यकभाष्य
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नाश नहीं होता । यह प्रकाशपरिणाम को छोड़कर अंधकारपरिणाम को धारण करता है, जैसे दूध दधिरूप तथा घट कपालरूप परिणाम को धारण करते हैं । अतः दीपक के समान जीव का भी सर्वथा उच्छेद नहीं माना जा सकता । यहाँ एक शंका होती है कि यदि दीप का सर्वथा नाश नही होता तो वह बुझने के बाद दिखाई क्यों नहीं देता ? इसका उत्तर यह है कि बुझने के बाद वह अंधकार में परिणत हो जाता है जो प्रत्यक्ष ही है । अतः यह कथन ठीक नहीं कि वह दिखाई नहीं देता । दीप बुझने पर उतनी ही स्पष्टता से क्यों नहीं दिखाई देता ? इसका कारण यह है कि वह उत्तरोत्तर सूक्ष्मतर परिणाम को धारण करता जाता है अतः विद्यमान होने पर भी वह स्पष्टतया दिखाई नहीं देता । जिस प्रकार बादल बिखर जाने के बाद विद्यमान होते हुए भी आकाश में दृष्टिगोचर नहीं होते तथा अंजन-रज विद्यमान होने पर भी आंखों से दिखाई नहीं देती उसी प्रकार दीपक भी बुझने पर विद्यमान होते हुए भी अपने सूक्ष्म परिणाम के कारण स्पष्टया दिखाई नहीं देता । इसी प्रकार निर्वाण में भी जीव का सर्वथा नाश नहीं होता ।
जिस प्रकार दीप जब निर्वाण प्राप्त करता है तब वह परिणामान्तर को प्राप्त होता है और सर्वथा नष्ट होता उसी प्रकार जीव भी जब परिनिर्वाण प्राप्त करता है तब वह निराबाध सुखरूप परिणामान्तर को प्राप्त करता है और सर्वथा नष्ट नहीं होता । अतः जीव की दुःखक्षयरूप विशेषावस्था ही निर्वाण हैं, मोक्ष है, मुक्ति है । मुक्त जीव को परम मुनि के समान स्वाभाविक प्रकृष्ट सुख होता है क्योंकि उनमें किसी प्रकार की बाधा नहीं होती ।
यह मान्यता भी ठीक नहीं कि मुक्तात्मा में ज्ञान का अभाव है ।" ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है । जैसे परमाणु कभी अमूर्त नहीं हो सकता वैसे ही आत्मा कभी ज्ञानरहित नहीं हो सकती । अतः यह कथन परस्पर विरुद्ध है कि 'आत्मा' है और वह 'ज्ञानरहित' है । इसका क्या प्रमाण कि ज्ञान आत्मा का स्वरूप है ? यह बात तो स्वानुभव से ही सिद्ध है कि हमारी आत्मा ज्ञानस्वरूप है । इस प्रकार स्वात्मा की ज्ञानस्वरूपता स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से सिद्ध ही है । परदेह में विद्यमान आत्मा भी अनुमान से ज्ञानस्वरूप सिद्ध हो सकती है । वह अनुमान इस प्रकार है : परदेहगत आत्मा ज्ञानस्वरूप है क्योंकि उसमें प्रवृत्ति-निवृत्ति दिखाई देती हैं । यदि वह ज्ञानस्वरूप न हो तो स्वात्मा के समान इष्ट में प्रवृत्त और अनिष्ट से निवृत्त न हो। चूंकि उसमें इष्टप्रवृत्ति और अनिष्टनिवृत्ति देखी जाती है अतः ज्ञानस्वरूप ही मानना चाहिए। जिस प्रकार प्रकाशस्वरूप
१. गा० १९८७-८.
४. नैयायिकों की यही मान्यता है : न संविदानन्दमयी मुक्तिः ।
२. गा० १९९१. ३. गा० १९९२.
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