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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भवति' अर्थात् जिससे हित की सिद्धि होती है वह मंगल है । अथवा मंगो धर्मस्तं लाति तकं समादत्ते' अर्थात् जो धर्म का समादान कराता है वह मंगल है । अथवा निपातन से मंगल का अर्थ इष्टार्थप्रकृति हो सकता है । अथवा 'मां गालयति भवाद्' अर्थात् जो भावचक्र से मुक्त करता है वह मंगल है। उसके नामादि चार प्रकार हैं। इसके बाद आचार्य ने नाम, स्थापना, द्रव्य, और भावमंगल के स्वरूप का विस्तारपूर्वक विचार किया है। द्रव्यमंगल की चर्चा करते समय नयों के स्वरूप, क्षेत्र आदि की ओर भी निर्देश किया है। चार प्रकार के मंगलों में एक दूसरे से क्या विशेषता है, इसकी ओर निर्देश करते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसा आकार, अभिप्राय, बुद्धि, क्रिया और फल स्थापनेन्द्र में देखा जाता है, वैसा न नामेन्द्र में देखा जाता है, न द्रव्येन्द्र में । उसी प्रकार जैसा उपयोग और परिणमन द्रव्य और भाव में देखा जाता है, वैसा न नाम में है, न स्थापना में । वस्तु का अभिधान मात्र नाम है, उसका आकार स्थापना है, उसकी कारणता द्रव्य है और उसको कार्यापन्नता भाव है।४ प्रकारान्तर से मंगल की व्याख्या करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि नंदी को भी मंगल कहा जा सकता है । उसके भी मंगल की तरह चार प्रकार हैं। उनमें से भावनंदी पंचज्ञानरूप है। वे पाँच ज्ञान हैं : आभिनिबोधिकज्ञान ( मतिज्ञान ), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान
और केवलज्ञान । ज्ञानपंचक :
अभिनिबोध का अर्थ है अर्थाभिमुख नियत बोध । यही आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान ) है । जो सुना जाता है अथवा जो सुनता है अथवा जिससे सुना जाता है वह श्रुत है । अवधि का अर्थ है मर्यादा । जिससे मर्यादित द्रव्यादि जाने जाते हैं वह अवधिज्ञान है । वह जो ज्ञान मन के पर्यायों को जानता है मनः पर्ययज्ञान है । पर्यय का अर्थ पर्यवन, पर्ययन और पर्याय है । केवलज्ञान अकेला अर्थात् असहाय है, शुद्ध है, पूर्ण है, असाधारण है, अनन्तर है। इसके बाद आचार्य ने यह सिद्ध किया है कि इन पाँच प्रकारों को इसो क्रम से क्यों गिनाया गया है। इन पाँच ज्ञानों में से मति और श्रुत परोक्ष है, शेष प्रत्यक्ष हैं। अक्ष का अर्थ है जीव । जो ज्ञान सीधा जीव से उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । जो ज्ञान द्रव्येन्द्रिय और द्रव्यमन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है। वैशेषिकादिसम्मत इन्द्रियोत्पन्न प्रत्यक्ष का खण्डन करते हुए आचार्य कहते हैं कि कुछ लोग इन्द्रियों को अक्ष मानते हैं और उनसे उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं, यह ठीक नहीं । इन्द्रियाँ घटादि की तरह अचेतन हैं, अतः उनसे ज्ञान उत्पन्न नहीं १ गा. २२-४. २. गा. २५-५१. ३. गा. ५३-४. ४. गा. ६०. ५. गा. ७८. ६. गा. ७९. ७. गा. ८०-४. ८. गा. ८५-९०.
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