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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कर्म का अस्तित्व :
इसके बाद अग्निभूति महावीर के पास पहुँचे । भगवान् ने उन्हें आया हुमा देखकर नाम और गोत्र से सम्बोधित किया और कहा-अग्निभूति ! तुम्हारे मन में यह सन्देह है कि कर्म है अथवा नहीं। मैं तुम्हारे इस सन्देह का निवारण करूंगा। तुम यह समझते हो कि कम प्रत्यक्ष आदि किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है, अतः वह खरविषाण की भांति अभावरूप है । तुम्हारा यह सन्देह अनुपयुक्त है । मैं कर्म को प्रत्यक्ष देखता हूँ । यद्यपि तुम्हें उसका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है तथापि अनुमान से तुम भी उसकी सिद्धि कर सकते हो। सुख-दुःखरूप कर्मफल तो तुम्हें प्रत्यक्ष ही है और उससे उसके कारणरूप कर्म की सत्ता का अनुमान किया जा सकता है । सुख-दुःख का कोई कारण अवश्य होना चाहिए क्योंकि वे कार्य हैं, जैसे अंकुररूप कार्य का हेतु बीज है । सुख-दुःखरूप कार्य का जो हेतु है वही कर्म है।'
अग्निभूति महावीर की यह बात मानकर आगे शंका करता है कि यदि सुख-दुःख का दृष्ट कारण सिद्ध हो तो अदृष्ट कारणरूप कर्म का अस्तित्व मानने की क्या आवश्यकता है ? चन्दन आदि पदार्थ सुख के हेतु हैं और सर्पविष आदि दुःख के हेतु हैं । इन दृष्ट कारणों को छोड़कर अदृष्ट कर्म को मानने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसका समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं कि दृष्ट कारण में व्यभिचार दिखाई देता है अतः अदृष्ट कारण मानना अनिवार्य हो जाता है। यह कैसे ? सुख-दुःख के दृष्ट कारणों के समानरूप से उपस्थित होने पर भी उनके कार्य में जो तारतम्य दिखाई देता है वह निष्कारण नहीं हो सकता । इसका जो कारण है वही कर्म है।
कर्म-साधक एक और प्रमाण देते हुए भगवान् महावीर कहते हैं-आद्य बालशरीर देहान्तरपूर्वक है क्योंकि वह इन्द्रियादि से युक्त है जैसे युवदेह बालदेहपूर्वक है । आद्य बालशरीर जिस देहपूर्वक है वही कर्म-कार्मणशरीर है।3।।
कर्म-साधक तीसरा अनुमान इस प्रकार है : दानादि क्रिया का कुछ फल अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह सचेतन व्यक्तिकृत क्रिया है, जैसे कृषि । दानादि क्रिया का जो फल है वही कर्म है। अग्निभूति इस बात को मानता हुआ पुनः प्रश्न करता है कि जैसे कृषि आदि क्रिया का दृष्ट फल धान्यादि है, उसी प्रकार दानादि क्रिया का फल भी मनःप्रसाद आदि क्यों न मान लिया जाए ? इस दृष्ट फल को छोड़कर अदृष्ट फलरूप कर्म की सत्ता मानने से क्या लाभ ? महावीर इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-अग्निभूति ! क्या तुम नहीं जानते कि मनःप्रसाद भी एक प्रकार की क्रिया है, अतः सचेतन की अन्य क्रियाओं ०१. गा१६१०-२. २. गा० १६१२-३. ३. गा० १६१४.
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