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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इन्द्रिय-भिन्न आत्मसाधक अनुमान :
भूत अथवा इन्द्रियों से भिन्नस्वरूप किसी तत्त्व का धर्म चतन्य है. क्योंकि भूत अथवा इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थ का स्मरण होता है, जैसे पांच झरोखों से उपलब्ध वस्तु का स्मरण होने के कारण झरोखों से भिन्नस्वरूप देवदत्त का धर्म चैतन्य है। जैसे क्रमश पाँच झरोखों से देखने वाला देवदत्त एक ही है और वह उन झरोखों से भिन्न है क्योंकि वह पाँचों झरोखों द्वारा देखी गई चीजों का स्मरण करता है, उसी प्रकार पांचों इन्द्रियों द्वारा गृहीत पदार्थों का स्मरण करने वाला भी इन्द्रियों से भिन्न कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए । इसी तत्त्व का नाम आत्मा अथवा जीव अथवा चेतना है । यदि स्वयं इन्द्रियों को ही उपलब्धिकर्ता मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ? इन्द्रियव्यापार के बन्द होने पर अथवा इन्द्रियों के नाश हो जाने पर भो इन्द्रियों द्वारा गृहीत वस्तु का स्मरण होता है तथा कभी-कभी इन्द्रियव्यापार के अस्तित्व में भी अन्यमनस्क को वस्तु का ज्ञान नहीं होता, अतः यह मानना चाहिए कि किसी वस्तु का ज्ञान इन्द्रियों को नहीं होता अपितु इन्द्रियभिन्न किसी अन्य को ही होता है । यही ज्ञाता आत्मा है।
दूसरा अनुमान इस प्रकार है : आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि वह एक इन्द्रिय द्वारा गृहीत पदार्थ का दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण करती है । जैसे एक खिड़की से देखे गये घट को देवदत्त दूसरी खिड़की से ग्रहण करता है अतः देवदत्त दोनों खिड़कियों से भिन्न है, वैसे ही आत्मा भी एक इन्द्रिय से गृहीत वस्तु का दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण करती है अतः वह इन्द्रियों से भिन्न है। दूसरी बात यह है कि वस्तु का ग्रहण एक इन्द्रिय से होता है किन्तु विकार दूसरी इन्द्रिय में होता है, जैसे आँखों द्वारा इमली आदि आम्ल पदार्थ देखते हैं किन्तु लालास्रवादि विकार ( लार टपकना, मुँह में पानी भर आना ) जिह्वा में होता है, अतः यह मानना पड़ता है कि आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है ।
तीसरा अनुमान इस प्रकार है : जीव इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि वह सभी इन्द्रियों द्वारा गृहीत अर्थ का स्मरण करता है । जिसप्रकार अपनी इच्छा से रूप आदि एक-एक गुण के ज्ञाता ऐसे पाँच पुरुषों से रूप आदि ज्ञान का ग्रहण करने वाला पुरुष भिन्न है, उसी प्रकार पांचों इन्द्रियों से उपलब्ध अर्थ का स्मरण करने वाला पाँचों इन्द्रियों से भिन्न कोई तत्त्व होना चाहिए । यही तत्त्व आत्मा है।
१. ग० १६५७-८.
२. गा० १६५९.
३. गा० १६६०.
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