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विशेषावश्यकभाष्य
१५७.
ज्ञानपर्याय है। ज्ञान की उत्पत्ति बिना ज्ञेय के संभव नहीं । अतः यदि ज्ञेय ही नहीं तो संशय उत्पन्न ही कैसे होगा ?'
यहाँ पर कोई यह कह सकता है कि ऐसा कोई नियम नहीं कि यदि सबका अभाव हो तो संशय ही न हो। जैसे सोये हुए पुरुष के पास कुछ भी नहीं होता फिर भी वह स्वप्न में संशय करता है कि 'यह गजराज है अथवा पर्वत ?' अतः सब कुछ शून्य होने पर भी संशय हो सकता है। यह कथन ठीक नहीं । स्वप्न में जो संदेह होता है वह भी पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण से ही होता है । यदि सभी वस्तुओं का सर्वथा अभाव हो तो स्वप्न में भी संशय न हो। जिन कारणों से स्वप्न होता है वे इस प्रकार है : अनुभूत अर्थ-जैसे स्नानादि, दृष्ट अर्थ-जैसे हस्ति-तुरगादि, चिन्तित अर्थ-जैसे प्रियतमा आदि, श्रुत अर्थ-जैसे स्वर्गनरकादि, प्रकृति विकार-जैसे वात-पित्तादि, अनुकूल या प्रतिकूल देवता, सजल प्रदेश, पुण्य तथा पाप । अतः स्वप्न भी भावरूप है । स्वप्न भावरूप है क्योंकि घटविज्ञानादि के समान वह भी विज्ञानरूप है अथवा स्वप्न भावरूप है क्योंकि वह भी अपने कारणों से उत्पन्न होता है, जैसे घट आदि अपने कारणों से उत्पन्न होने के कारण भावरूप हैं ।
शून्यवाद में एक दोष यह भी है कि यदि सब कुछ शून्य हो तो स्वप्न-अस्वप्न, सत्य-मिथ्या, गन्धर्वनगर-पाटलिपुत्र, मुख्य-गौण, साध्य-साधन, कार्य-कारण, वक्तावचन, त्रि-अवयव-पंचावयव, स्वपक्ष-परपक्ष आदि भेद भी न हो।
यह कहना कि समस्त व्यवहार सापेक्ष है, अतः किसी पदार्थ की स्वरूपसिद्ध नहीं हो सकती, अयुक्त है । हमारे सामने एक प्रश्न है कि ह्रस्व-दीर्घ का ज्ञान युगपद् होता है या क्रमशः ? यदि युगपद् होता है तो जिस समय मध्यम अंगुली के विषय में दीर्घत्व का प्रतिभास हुआ उसी समय प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व का प्रतिभास हुआ, ऐसा मानना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में यह नहीं कहा जा सकता कि ह्रस्वत्व-दीर्घत्व सापेक्ष हैं। यदि ह्रस्व-दीर्घ का ज्ञान क्रमशः होता है तो पहले प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व का ज्ञान होता है जो मध्यम अंगुली के दीर्घत्व के प्रतिभास से निरपेक्ष है। अतः यह मानना पड़ता है कि ह्रस्वत्व-दीर्घत्व का व्यवहार केवल सापेक्ष नहीं है। एक और दृष्टान्त लें। बालक जन्म लेने के बाद सर्वप्रथम आंखें खोल कर जो ज्ञान प्राप्त करता है उसमें किसकी अपेक्षा है ? तथा दो सदृश पदार्थों का ज्ञान यदि एक साथ हो तो उसमें भी किसी की अपेक्षा दृष्टिगोचर नहीं होती। इन सब कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए यह
१. गा० १६९५-१७००.
२. १७०२-४.
३. गा० १७०५.९.
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