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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस प्रकार जब भगवान् महावीर ने वायुभूति के संशय का निवारण किया तो उन्होंने अपने ५०० शिष्यों सहित भगवान् से दोक्षा अंगीकार कर ली।' शून्यवाद का निरास :
इन्द्रभूति आदि तीनों को दीक्षित हुए सुनकर व्यक्त ने विचार किया कि मुझे भी महावीर के पास पहुँचना चाहिए। यह सोचकर वे भगवान् महावीर के पास पहुँचे । भगवान् ने उन्हें आया हुआ जान कर संबोधित करते हुए कहाहे व्यक्त ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि भूतों का अस्तित्व है या नहीं ? तुम वेदवाक्यों का यथार्थ अर्थ नहीं जानते, इसीलिए तुम्हें इस प्रकार की शंका है । मैं -तुम्हें इनका सच्चा अर्थ बताऊँगा जिससे तुम्हारा संशय दूर होगा।
हे व्यक्त ! तुम यह समझते हो कि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले ये सब भूत स्वप्नो'पम हैं तथा जीव, पुण्य, पाप आदि परोक्ष पदार्थ भी मायोपम है । इस प्रकार समस्त संसार यथार्थ में शून्यरूप है । तुम यह भी जानते हो कि संसार में सकल व्यवहार ह्रस्व-दीर्घ के समान सापेक्ष है, अतः वस्तु की सिद्धि स्वतः, परतः, उभयतः तथा अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती । अतः सब कुछ शून्य है । इसी प्रकार ‘पदार्थ के साथ अस्तित्व, एकत्व, अनेकत्व आदि का किसी प्रकार का संबन्ध सिद्ध नहीं हो सकता, अतः सब शून्य है । उत्पत्ति, अनुत्पत्ति, उभय, अनुभय आदि में भी इसी प्रकार के अनेक दोष उपस्थित होते हैं, अतः जगत् को शून्यरूप ही मानना चाहिए।
__ इन शंकाओं का निवारण इस प्रकार है : यदि संसार में भूतों का अस्तित्व ही न हो तो उनके विषय में आकाश-कुसुम के समान संशय ही उत्पन्न न हो । जो वस्तु विद्यमान होती है उसी के विषय में संशय होता है जैसे स्थाणु और पुरुष के विषय में । ऐसी कौन-सी विशेषता है जिसके कारण स्थाणु-पुरुष के विषय में तो सन्देह होता है किन्तु आकाश-कुसुम के विषय में सन्देह नहीं होता ? अथवा ऐसा क्यों नहीं होता कि आकाश-कुसुम आदि के विषय में ही सन्देह हो तथा -स्थाणु-पुरुष के विषय में सन्देह न हो ? अतः यह मानना चाहिए कि आकाश'कुसुम के समान सब कुछ समानरूप से शून्य नहीं है । प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम द्वारा पदार्थ की सिद्धि होतो है, अतः इन प्रमाणों के विषयभूत पदार्थों के सम्बन्ध में ही संशय उत्पन्न होता है । जो सर्वप्रमाणातीत है उसके विषय में संशय कैसे हो सकता है ? इसीलिए स्थाणु-पुरुष आदि पदार्थों के विषय में तो संदेह होता है किन्तु आकाश-कुसुम आदि के विषय में नहीं। दूसरी बात यह है कि संशयादि
१. गा० १६८६.
२. गा० १६८७-९.
३. गा० १६९०-६.
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