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विशेषावश्यकभाष्य
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यह मान्यता कि कार्य कारण के समान ही होता है, ठीक नहीं । यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं कि कार्य कारण के सदृश ही होता है। शृग से भी शर नामक वनस्पति उत्पन्न होती है। उसी पर यदि सरसों का लेप किया जाये तो पुनः उसी में से एक विशेष प्रकार की घास पैदा होती है। गाय तथा बकरी के बालों से दूर्वा ( दूब ) उत्पन्न होती है। इस प्रकार नाना प्रकार के द्रव्यों के संयोग से विलक्षण वनस्पति की उत्पत्ति का वर्णन वृक्षायुर्वेद में मिलता है । अतः यह मानना चाहिए कि कार्य कारण से विलक्षण भी उत्पन्न हो सकता है । यह ऐकान्तिक नियम नहीं कि कार्य कारणानुरूप ही हो।'
कारणानुरूप कार्य मानने पर भी भवान्तर में विचित्रता सम्भव है। कारणानुरूप कार्य स्वीकार करने पर भी यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य मर कर मनुष्य ही बनता है । यह कैसे ? बीज के अनुरूप अंकुर की उत्पत्ति मानने पर भी परभव में जीव में वैचित्र्य मानना हो पड़ेगा । मनुष्य का उदाहरण लें । भवांकुर का बीज मनुष्य स्वयं न होकर उसका कर्म होता है। चूंकि कर्म विचित्र है अतः उसका परभव भी विचित्र ही होगा। कर्म की विचित्रता का प्रमाण यह है कि कर्म पुद्गल का परिणाम है अतः उसमें बाह्य अभ्रादि विकार के समान वैचित्र्य हाना चाहिए। कर्म की विचित्रता के राग-द्वेषादि विशेष कारण हैं।
कर्म के अभाव में भी भव मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ? ऐसो स्थिति में भव का नाश भी निष्कारण मानना पड़ेगा और मोक्ष के लिए तपस्या आदि अनुष्ठान भो व्यर्थ सिद्ध होंगे। इसी प्रकार जीवों के वैसादृश्य को भी निष्कारण मानना पड़ेगा। इस प्रकार कर्म के अभाव में भव की सत्ता मानने पर अनेक दोषों का सामना करना पड़ेगा।
कर्म के अभाव में स्वभाव से ही परभव मानने में क्या हानि है ? इसका उत्तर देते हुए महावीर कहते हैं कि स्वभाव क्या है ? वह कोई वस्तु है, निष्कारणता है अथवा वस्तुधर्म है ? वस्तु मानने पर उसकी उपलब्धि होना चाहिए किन्तु आकाश-कुसुम के समान उसकी उपलब्धि नहीं होती अतः वह वस्तु नहीं है । यदि अनुपलब्ध होने पर भी स्वभाव का अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता है तो अनुपलब्ध होने पर कर्म का अस्तित्व स्वीकार करने में क्या आपत्ति है ? दूसरी बात यह है कि स्वभाव की विसदशता आदि की सिद्धि के लिए कोई हेतु नहीं मिलता जिससे कि जगत्-वैचित्र्य सिद्ध हो सके । स्वभाव की निष्कार.
१. गा० १७७३-५. . २. गा० १७७६-८. ३. गा० १७८०. ४. गा० १७८४.
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