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हिंसा-अहिंसा का विवेक :
यदि पृथ्वी आदि भूतों में अनन्त जीव विद्यमान हैं तो साधु को आहारादि लेने के कारण अनन्त जीवों की हिंसा का दोष लगेगा । ऐसी अवस्था में साधु को अहिंसक कैसे माना जाएगा भूतों के सजीव होने पर भी साधु को हिंसा का दोष इसलिए नहीं लगता कि शस्त्रोपहत पृथ्वी आदि भूतों में जीव नहीं होता । ऐसे भूत निर्जीव ही होते हैं । यह कथन भी ठीक नहीं कि कोई व्यक्ति केवल जीव का घातक बनने से हिंसक हो जाता है । यह कथन भी अनुचित है कि एक व्यक्ति किसी भी जीव का घातक नहीं है अतः वह निश्चित रूप से अहिंसक है । यह मानना भी युक्तिसंगत नहीं कि थोड़े जीव हों तो हिंसा नहीं होती और अधिक जीव हों तो हिंसा होती है । हिंसक और अहिंसक की पहिचान यह है कि जीव की हत्या न करने पर भी दुष्ट भावों के कारण व्यक्ति हिंसक कहलाता है तथा जीव का घातक होने पर भी व्यक्ति शुद्ध भावों के कारण अहिंसक कहलाता है । पाँच समिति तथा तीन गुप्ति सम्पन्न ज्ञानी मुनि अहिंसक है । इससे विपरोत जो असंयमी है वह हिंसक है । संयमी किसी जीव का घात करे या न करे किन्तु वह हिंसक नहीं कहलाता क्योंकि हिंसा-अहिंसा का आधार आत्मा का अध्यवसाय है, न कि क्रिया । वस्तुतः अशुभ परिणाम का नाम ही हिंसा है । यह अशुभ परिणाम बाह्य जीवघात की अपेक्षा रख भी
सकता है और नहीं भी । जो जीववध परिणाम का जनक है वह जीववध तो णाम का जनक नहीं वह हिंसा की कोटि विषय वीतराग में राग उत्पन्न नहीं कर होते हैं उसी प्रकार संयमी का जीववध मन शुद्ध है ।"
अशुभ परिणामजन्य है अथवा अशुभ हिंसा ही है । जो जीववध अशुभ परिसे बाहर है । जिस प्रकार शब्दादि सकते क्योंकि वीतराग के भाव शुद्ध भी हिंसा नहीं कहलाता क्योंकि उसका
इस प्रकार भगवान् महावीर ने अपने ५०० शिष्यों सहित भगवान् इहलोक और परलोक की विचित्रता :
उपर्युक्त चार पंडितों के दीक्षित होने का समाचार सुनकर सुधर्मा भगवान् महावीर के पास पहुँचे । महावीर ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा - सुधर्मा ! तुम्हें यह संशय है कि जीव जैसा इस भव में है वैसा ही परभव में भी होता है। या नहीं ? तुम्हें वेदपदों का अर्थ ज्ञात नहीं इसीलिए इस प्रकार का संशय होता है । मैं तुम्हारे संशय का निवारण करूंगा । ३
१. गा० १७६२-८.
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व्यक्त का संशय दूर किया और उन्होंने दीक्षा ग्रहण की । २
२. गा० १७६९.
३. गा० १७७० - २.
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