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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
___ अथवा यों कहिये कि संसारो आत्मा वस्तुतः एकान्तरूप से अमूर्त नहीं है । जीव तथा कर्म का अनादिकालीन सम्बन्ध होने के कारण कथञ्चित् जीव भी कर्मपरिणामरूप है, अतः वह उस रूप में मूर्त भी है । इस प्रकार मूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म द्वारा होने वाले अनुग्रह और उपघात को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । देह और कर्म में परस्पर कार्यकारणभाव है । जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज को उत्पत्ति है और इस प्रकार बीजांकुर सन्तति अनादि है उसी प्रकार देह से कर्म और कर्म से देह का उद्भव समझना चाहिए। देह
और कर्म की यह परम्परा अनादि है।' ईश्वरकर्तृत्व का खंडन ___ अग्निभूति एक और शंका उपस्थित करते हैं। वे कहते हैं कि यदि ईश्वरादि को जगत्-वैचित्रय का कारण मान लिया जाए तो कर्म को कोई आवश्यकता नहीं रहती | महावीर कहते हैं कि कर्म की सत्ता न मानकर मात्र शुद्ध जीव को ही देहादि की विचित्रता का कर्ता माना जाए अथवा ईश्वरादि को इस समस्त वैचित्र्य का कर्ता माना जाए तो हमारी सारी मान्यताएं असंगत सिद्ध होंगी। यह कैसे ? यदि शुद्ध जोव अथवा ईश्वरादि को कर्म-साधन की अपेक्षा नहीं है तो वह शरीरादि का आरंभ ही नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास आवश्यक उपकरणों का अभाव है जैसे कुंभकार दंडादि उपकरणों के अभाव में घटादि का निर्माण नहीं कर सकता उसी प्रकार ईश्वर कर्मादि साधनों के अभाव में शरीरादि का निर्माण नहीं कर सकता। इसी प्रकार निश्चेष्टता, अमूर्तता आदि हेतुओं से भी ईश्वर-कर्तृत्व का खण्डन किया जा सकता है।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने अग्निभूति के संशय का निवारण कर दिया तो उन्होंने अपने ५०० शिष्यों सहित भगवान् से दीक्षा ग्रहण कर ली। आत्मा और शरीर का भेद :
इन्द्रभूति तथा अग्निभूति के दीक्षित होने के समाचार सुनकर वायुभूति भगवान् महावीर के पास पहुँचे । भगवान् ने उन्हें संबोधित करते हुए कहावायुभूति ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि जीव और शरीर एक ही हैं अथवा भिन्न-भिन्न हैं ? तुम्हें वेद-पदों का सच्चा अर्थ मालूम नहीं है, इसीलिए तुम्हें इस प्रकार का संदेह हो रहा है। तुम यह मानते हो कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इन चार भूतों के समुदाय से चैतन्य उत्पन्न होता है । जिस प्रकार मद्य उत्पन्न करने वाली पृथक्-पृथक् वस्तुओं में मदशक्ति दिखाई नहीं देती फिर
१. गा० १६३८-९. २. गा० १६४१-२. ३. गा० १६४४. ४. गा० १६४९.
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