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विशेषावश्यकभाष्य
१५३ भी उनके समुदाय से मदशक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि किसी भी पृथक भूत में चैतन्यशक्ति दिखाई नहीं देती फिर भी उनके समुदाय से चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है । जिस प्रकार पृथक्-पृथक् द्रव्यों के समुदाय से मदशक्ति उत्पन्न होती है और कुछ समय तक स्थिर रह कर कालान्तर में विनाश की सामग्री उपस्थित होने पर पुनः नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार भूतों के समुदाय से चैतन्य उत्पन्न होता है और कुछ समय तक विद्यमान रहने पर कालान्तर में विनाश की सामग्री उपस्थित होने पर पुनः नष्ट हो जाता है। अतः चैतन्य भूतों का धर्म है और भूतरूप शरीर तथा चैतन्यरूप आत्मा अभिन्न हैं।'
भगवान् महावीर इस संशय का निराकरण करते हुए कहते हैं-हे वायुभूति ! तुम्हारा यह संशय ठीक नहीं है क्योंकि चैतन्य केवल भूतों के समुदाय से उत्पन्न नहीं हो सकता । वह स्वतंत्ररूप से सत् है क्योंकि प्रत्येक भूत में उसकी सत्ता का अभाव है। जिसका प्रत्येक अवयव में अभाव हो वह समुदाय से भी उत्पन्न नहीं हो सकता। रेत के प्रत्येक कण में तेल नहीं है अतः रेत के समुदाय से भी तेल नहीं निकल सकता । तिल-समुदाय से तेल निकलता है क्योंकि प्रत्येक तिल में तेल की सत्ता है ।२ तुम्हारा यह कथन कि मद्य के प्रत्येक द्रव्य में मद अविद्यमान है, अयुक्त है। वस्तुतः मद्य के प्रत्येक अंग में मद की न्यून या अधिक मात्रा विद्यमान है ही इसीलिए वह समुदाय से उत्पन्न होता है ।
भूतों में भी मद्यांगों के समान प्रत्येक में चैतन्य की मात्रा विद्यमान है अतः वह समुदाय से भी उत्पन्न हो जाता है, ऐसा मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है ? यह बात नहीं मानी जा सकती क्योंकि जिस प्रकार मद्य के प्रत्येक अंगधातकीपुष्प, गुड़, द्राक्षा, इक्षुरस आदि में मदशक्ति दिखाई देती है उस प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्यशक्ति का दर्शन नहीं होता । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि केवल भूतसमुदाय से ही चैतन्य उत्पन्न होता है ।।
मद्य के प्रत्येक अंग में भी यदि मदशक्ति न मानें तो क्या दोष है ? यदि 'भूतों में चैतन्य के समान मद्य के भी प्रत्पेक अंग में मदशक्ति न हो तो यह नियम ही नहीं बन सकता कि मद्य के धातकीपुष्प आदि तो कारण हैं और अन्य पदार्थ नहीं। ऐसी अवस्था में राख, पत्थर आदि कोई भी वस्तु मद का कारण बन जाए गी और किसी भी समुदाय से मद्य उत्पन्न हो जाएगा। किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता अतः मद्य के प्रत्येक अंगभूत पदार्थ में मदशक्ति का अस्तित्व अवश्य मानना चाहिए।" १. गा० १६५०-१. २. यह सत्कार्यवाद का मूलभूत सिद्धान्त है। ३. गा० १६५२. ४. गा०१६५३ ५. गा० १६५४.
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