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विशेषावश्यकभाष्य
१४९ पट का अभाव है। शरीर से बाहर संसारी आत्मा की उपलब्धि नहीं है अतः शरीर से बाहर उसका अभाव मानना युक्तियुक्त है। जोव में कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष, सुख, दुःख आदि सभी युक्तिसंगत सिद्ध हो सकते हैं, जब उसे अनेक और असर्वव्यापक-स्वशरीरव्यापी माना जाए । अतः जीव को अनेक और असर्वगत मानना चाहिए। जीव की नित्यानित्यता :
आत्मा पूर्व पर्याय के नाश और अपर पर्याय की उत्पत्ति की अपेक्षा से अनित्य स्वभाव वाली है । घटादि विज्ञानरूप उपयोग का नाश होने पर पटादि विज्ञानरूप उपयोग उत्पन्न होता है। इससे जोव में उत्पाद और व्यय दोनों सिद्ध होते हैं अतः जोव विनाशी है। ऐसा होते हुए भी विज्ञान-सन्तति की अपेक्षा से जीव अविनाशी अर्थात् नित्य-ध्रुव भी सिद्ध होता है। आत्मा में विज्ञानसामान्य का कभी अभाव नहीं होता, विज्ञान विशेष का अभाव होता है । अतः विज्ञानसन्तति अर्थात् विज्ञानसामान्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविनाशी है। संसार के अन्य पदार्थों का भी यही स्वभाव है।
जीव भूतधर्म नहीं :
कुछ लोग यह मानते हैं कि विज्ञान की उत्पत्ति भूतों से ही होती है, अतः विज्ञानरूप जीव भूतों का ही धर्म है ।३ उनकी यह मान्यता अनुपयुक्त है । विज्ञान का भूतों के साथ कोई अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है। भूतों का अस्तित्व होने पर भी मृत शरीर में ज्ञान का अभाव देखा जाता है। भूतों के अभाव में भी मुक्तावस्था में ज्ञान का सद्भाव है । अतः भूतों के साथ ज्ञान का अन्वय-व्यतिरेक असिद्ध है। इसीलिए ज्ञानरूप जीव भूतधर्म नहीं हो सकता । जिस प्रकार घट का सद्भाव होने पर नियमपूर्वक पट का सद्भाव नहीं होता तथा घट के अभाव में भी पट का सद्भाव देखा जाता है, अतः पट को घट से भिन्न एवं स्वतन्त्र माना जाता है, उसी प्रकार ज्ञान को भी भूतों से भिन्न मानना चाहिए । अतः विज्ञानरूप जीव भूतधर्म नहीं हो सकता ।। __इस प्रकार भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति का जीवविषयक संशय दूर किया और उन्होंने अपने पाँच सौ शिष्यों सहित महावीर से दीक्षा ग्रहण की।"
१. गा० १५८६-७. ४. गा० १५९७-९.
२. गा० १५९५. ३. चार्वाक की यही मान्यता है । ५. गा० १६०४.
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