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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रकाश डाला है ।" इसके बाद
भी देह का उपकार करते हैं ।" जो श्रुतविहित संघ है वही भावतोर्थ है, उसमें रहने वाला साधु तारक है । ज्ञानादि त्रिक तरण है तथा भवसमुद्र तरणीय है । तोथं का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि जो दाहोपशम, तृष्णाच्छेद तथा मलक्षालनरूप अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्ररूप तीन अर्थों में स्थित है वह त्रिस्थ ( तित्थ ) अर्थात् तीर्थं । वह भी संघ ही है । तीर्थ ( तित्थ ) का अर्थ भी हो सकता है अर्थात् जो क्रोधाग्निदाहोपशम आदि उपर्युक्त तीन अर्थों को प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है वह व्यर्थ - तित्थ - तीर्थ है । यह अर्थ भी संघरूप ही है । ३ जो भावतीर्थ की स्थापना करते हैं अर्थात् उसे गुणरूप से प्रकाशित करते हैं उन्हें तीर्थंकर - हितार्थंकर कहते हैं । तीर्थंकरों के पराक्रम, ज्ञान, गति आदि विषयों पर भी आचार्य ने वर्तमान तीर्थ के प्रणेता भगवान् महावीर को नमस्कार उनके एकादश गणधर आदि अन्य पूज्य पुरुषों को वन्दन किया है । इसके बाद सर्वप्रथम आवश्यकसूत्र की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा करते हुए सामायिक नामक प्रथम अध्ययन का विवेचन करने की प्रतिज्ञा की है । 'नियुक्ति' शब्द का विशेष व्याख्यान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र के निश्चित अर्थ की व्याख्या करना ही नियुक्ति है । ७ सूत्रादि की रचना कैसे होती है, इसकी ओर संकेत करते हुए यह बताया गया है कि जिन अर्थभाषक हैं तथा गणधर सूत्रग्रथक हैं । शासन के हितार्थं ही सूत्र की प्रवृत्ति है । अर्थप्रत्यायक शब्द में अर्थ का उपचार किया जाता है और इसी प्रकार अर्थ का अभिलाप होता है। सूत्र में अर्थविस्तार अधिक है अतएव वह महार्थ है ।"
किया है । तदुपरान्त
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ज्ञान और चारित्र :
सामायिकादि श्रुत का सार चारित्र है, चारित्र का सार को प्रधान इसलिए कहा जाता है कि वह मुक्ति का प्रत्यक्ष वस्तु की यथार्थता - अयथार्थता का प्रकाशन होता है और इससे चारित्र की विशुद्धि होती है, अतः ज्ञान चारित्र - विशुद्धि के प्रति प्रत्यक्ष कारण है । इस प्रकार ज्ञान और चारित्र दोनों मोक्ष के प्रति दोनों में अन्तर यही है कि ज्ञान चारित्र-शुद्धि का कारण होने से व्यवहित कारण है, जबकि चारित्र मोक्ष का अव्यवहित कारण है
कारण हैं । मोक्ष का
।
दूसरी बात यह है कि ज्ञान का उत्कृष्टतम
३. गा० १०३५-७ ..
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१. गा० १०२५-३१.
४. गा० १०४७.
६. गा० १०५७-६८.
८. गा० १०९५-११२५.
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२. गा० १०३२.
५. गा० १०४९ - १०५३.
७. गा० १०८६.
९. गा० ११२६-११३०.
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निर्वाण है | चारित्र कारण है। ज्ञान से
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