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विशेषावश्यकभाष्य
१३९.
लाभ (केवलज्ञान) हो जाने पर भी जीव मुक्त नहीं होता, जब तक कि सर्वसंवर का लाभ न हो जाए । इससे भी यही सिद्ध होता है कि संवर-चारित्र ही मोक्ष का मुख्य हेतु है, न कि ज्ञान । अतः चारित्र ज्ञान से प्रधानतर है।" आचार्य ने ज्ञान और चारित्र के सम्बन्ध को और भी चर्चा की है। सामायिक-लाभ:
सामायिक का लाभ कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए नियुक्तिकार ने कहा है कि आठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के विद्यमान होने पर जीव को चार प्रकार की सामायिक में से एक का भी लाभ नहीं हो सकता। इसका विवेचन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम है, मोहनीय की सत्तर कोटाकोटी सागरोपम है, शेष अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय की तीस कोटाकोटी सागरोपम है तथा आयु की तैतीस सागरोपम है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, आयु, मोहनीय तथा अंतराय की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त है तथा वेदनीय की बारह मुहूर्त है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होने पर छ: कर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र तथा अंतराय की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता ही है ( उत्कृष्ट संक्लेश होने पर ही मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है ) किन्तु आयु की स्थिति का बंध उत्कृष्ट अथवा मध्यम कैसा भी हो सकता है। इतना अवश्य है कि इस स्थिति में आयु का जघन्य बंध नहीं हो सकता। मोहनीय को छोड़ कर शेष ज्ञानावरणादि किसी की भी उत्कृष्ट स्थिति का बंध होने पर मोहनीय अथवा अन्य किसी भी कर्म की उत्कृष्ट या मध्यम स्थिति का बंध होता है किन्तु आयु का स्थिति-बंध जघन्य भी हो सकता है । सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत तथा सर्वव्रत इन चार सामायिकों में से उत्कृष्ट कर्म स्थिति वाला एक भी सामायिक की प्राप्ति नहीं कर सकता किन्तु उसे पूर्वप्रतिपन्न विकल्प से है अर्थात् होती भी है, नहीं भी होती ( अनुत्तरसुर में पूर्वप्रतिपन्न सम्यक्त्व तथा श्रुत होते हैं, शेष नहीं)। ज्ञानावरणादि की जघन्य स्थिति वाले को भी इन सामायिकों में से एक का भी लाभ नहीं होता क्योंकि उसे पहले से ही ये सब प्राप्त होती हैं, ऐसी स्थिति में पुनर्लाभ का प्रश्न ही नहीं उठता। आयु की जघन्य स्थिति वाले को न तो ये पहले से प्राप्त होती हैं, न वह प्राप्त कर सकता है । इसके बाद सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए ग्रंथिभेद का स्वरूप बताया गया है । १. गा० ११३१-२.
२. गा० १३३-१९८२. ३. गा० ११८६.
४. गा० १९८७-११९२.
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