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विशेषावश्यकभाष्य
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छेद होता है तथा व्रतों में उपस्थापन होता है उसे छेदोपस्थापन कहते हैं। वह दो प्रकार का है : सातिचार तथा निरतिचार । शिष्य की उपस्थापना अथवा तीर्थान्तरसंक्रांति में जिसका आरोप किया जाता है वह निरतिचार छेदोपस्थापन है । मूलगुणघाती का जो पुनः समारोपण है वह सातिचार छेदोपस्थापन है। परिहार नाम तपविशेष से विशुद्ध होने का नाम परिहारविशुद्धि चारित्र है। वह दो प्रकार का है : निर्विशमान तथा निविष्टकायिक । परिहारिक का चारित्र निविशमान है। अनुपहारी तथा कल्पस्थित का चारित्र निविष्टकायिक है। क्रोधादि कषायवर्ग को संपराय कहते हैं। जिसमें संपराय का सूक्ष्य अवशेष रहता है वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र है । श्रेणी ( उपशम अथवा क्षपक ) पर आरूढ़ होने वाला विशुद्धिप्राप्त जीव इसका अधिकारी होता है । यथाख्यात चारित्र वाला जीव कषाय से निलिप्त होता है । यह चारित्र दो प्रकार का है : छद्मस्थसम्बन्धी तथा केवलीसम्बन्धी। छद्मस्थसम्बन्धी के पुनः दो भेद हैं : मोहक्षयसमुत्थ तथा मोहोपशमप्रभव अर्थात् कषाय के क्षय से उत्पन्न होने वाला तथा कषाय के उपशम से उत्पन्न होने वाला । केवलीसम्बन्धी यथाख्यात के दो भेद हैं : सयोगी तथा अयोगी। कषाय के उपशम और क्षय की प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए भाष्यकार ने आगे उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी का स्वरूप-वर्णन किया है । प्रवचन एवं सूत्र :
केवलज्ञान की उत्पत्ति के प्रसंग को दृष्टि में रखते हुए जिन-प्रवचन की उत्पत्ति का वर्णन करने के बाद आचार्य नियुक्ति की उस गाथा का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं जिसमें यह निर्देश किया गया है कि श्रुतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचन, प्रवचन-ये सब प्रवचन के एकार्थक हैं तथा सूत्र, तन्त्र, ग्रन्थ, पाठ, शास्त्र-ये सब सूत्र के एकार्थक है । श्रुतधर्म क्या है ? इसका विवेचन करते हुए कहा गया है कि श्रुत का धर्म अर्थात् स्वभाव बोध होता है और वही श्रुतधर्म है; अथवा श्रुतरूप धर्म श्रुतधर्म है और वह जीव का पर्यायविशेष है; अथवा सुगति अर्थात् संयम में धारण करने के कारण धर्म को श्रुत कहते हैं और वही श्रुतधर्म है। इसी प्रकार भाष्यकार ने तीर्थ, मार्ग, प्रावचन, सत्र, तन्त्र, ग्रन्थ, पाठ और शास्त्र का शब्दार्थ-विवेचन किया है।
१. गा० १२६८-९. ४. गा० १२७९-१२८०. ६. गा० १३७९.
२. १२७०-१.
___३. १२७७-८. ५. गा० १२८३-१३४५. ७. गा० १३८०-४.
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