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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जीव के गुण प्रत्यक्ष है अतः जीव भी प्रत्यक्ष है। जिस प्रकार घट के प्रत्यक्ष का आधार उसके रूपादि गुण हैं उसी प्रकार आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव का आधार उसके ज्ञानादि गुण हैं। जो लोग गुण से गुणी को एकान्त भिन्न मानते हैं उनके मत में रूपादि का ग्रहण होने पर भी घटादि गुणीरूप पदार्थों का ग्रहण न होगा। इन्द्रियों द्वारा मात्र रूपादि का ग्रहण होने से रूपादि को तो प्रत्यक्ष माना जा सकता है किन्तु रूपादि से एकान्त भिन्न घट का प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता । इस प्रकार जब घटादि पदार्थ भी सिद्ध नहीं तो फिर आत्मा के अस्तित्व-नास्तित्व का विचार करने से क्या लाभ ? अतः स्मरणादि गुणों के आधार पर आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए।' आत्मा और शरीर के भेद :
उपयुक्त चर्चा के आधार पर इन्द्रभूति यह बात मानने के लिए तैयार हो जाते हैं कि ज्ञानादि गुणों का प्रत्यक्ष होने के कारण उनका आधारभूत कोई गुणी अवश्य होना चाहिए। इतना स्वीकार करने पर वे एक नई शंका उठाते हैं । वे कहते हैं कि स्मरणादि गुणों का आधार आत्मा ही है, यह मान्यता ठीक नहीं क्योंकि कृशता, स्थूलता आदि गुणों के समान स्मरणादि गुण भी शरीर में ही उपलब्ध होते हैं। ऐसी दशा में उनका गुणीभूत आधार शरीर को ही मानना चाहिए, शरीर से भिन्न आत्मा को नहीं। इस शंका का समाधान करते हुए महावीर कहते हैं कि ज्ञानादि शरीर के गुण नहीं हो सकते क्योंकि शरीर घट के समान मूर्त अर्थात् चाक्षुष है जबकि ज्ञानादि गुण अमूर्त अर्थात् अचाक्षुष हैं। अतः ज्ञानादि गुणों के अनुरूप देह से भिन्न किसी अमूर्त गुणी की सत्ता अवश्य मानना चाहिए । यही गुणी आत्मा अर्थात् जीव है । इसके बाद इन्द्रभूति एक और शंका उठाते हैं। वे कहते हैं कि मैं अपनी देह में आत्मा का अस्तित्व मान सकता हूँ किन्तु दूसरों की देह में भी आत्मा की सत्ता है, इसका क्या प्रमाण ? महावीर कहते हैं कि इस हेतु से अन्य आत्माओं की भी सिद्धि हो सकती है। दूसरों के शरीर में भी विज्ञानमय जीव है क्योंकि उनमें भी इष्टप्रवृत्ति, अनिष्टनिवृत्ति आदि विज्ञानमय क्रियाएँ देखी जाती हैं ।२ आत्मा की सिद्धि के हेतु :
जिस प्रकार सांख्यदर्शन में पुरुष को प्रकृति से भिन्न सिद्ध करने के लिए अधिष्ठातृत्व, संघातपरार्थत्व आदि हेतु दिए गए उसी प्रकार विशेषावश्यकभाष्य में भी आत्मसिद्धि के लिए इसी प्रकार के कुछ हेतु दिए गए हैं । (१) इन्द्रियों का कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिए क्योंकि वे कारण हैं जैसे कि दंडादि १. गा० १५५४-१५६०. २. गा० १५६१-४.
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