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विशेषावश्यकभाष्य
१४५ चाहिए। चूँकि वह खपुष्प की भाँति सर्वथा अप्रत्यक्ष है, अतः उसका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जा सकता । यदि कोई यह कहे कि जीव अनुमान से सिद्ध है तो भी ठीक नहीं। इसका कारण यह है कि अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है। जिसका प्रत्यक्ष ही नहीं उसकी सिद्धि अनुमान से कैसे हो सकती है ? प्रत्यक्ष से निश्चित धूम तथा अग्नि के अविनाभावसंबन्ध का स्मरण होने पर ही धूम के प्रत्यक्ष से अग्नि का अनुमान किया जा सकता है। जीव के किसी भी लिंग का संबन्धग्रहण उसके साथ प्रत्यक्ष द्वारा नहीं होता, जिससे उस लिंग का पुनः प्रत्यक्ष होने पर उस संबन्ध का स्मरण हो जाए तथा उससे जीव का अनुमान किया जा सके । आगम प्रमाण से भी जीव का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिसका प्रत्यक्ष ही नहीं वह आगम का विषय कैसे हो सकता है ? कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता जिसे जीव का प्रत्यक्ष हो और जिसके वचनों को प्रमाणभूत मानकर जीव का अस्तित्व सिद्ध किया जा सके । दूसरी बात यह है कि आगम प्रमाण मानने पर भी जीव की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि विभिन्न आगम परस्पर विरोधी तत्त्वों को सिद्ध करते हैं। जिस बात की एक आगम सिद्धि करता है उसी का दूसरा खंडन करता है। ऐसी स्थिति में आगम के आधार पर भी जीव का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार किसी भी प्रमाण से जीव के अस्तित्व की सिद्धि नहीं हो सकती, अतः उसका अभाव मानना चाहिए । ऐसा होते हुए भी लोग जीव का अस्तित्व क्यों मानते हैं ?'
इस संशय का निवारण करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं-हे गौतम ! तुम्हारा यह संदेह उचित नहीं। तुम्हारी यह मान्यता कि 'जीव प्रत्यक्ष नहीं है' ठीक नहीं, क्योंकि जोव तुम्हे प्रत्यक्ष है ही। यह कैसे ? 'जीव है या नहीं' इस प्रकार का जो संशयरूप विज्ञान है वही जीव है क्योंकि जीव विज्ञानरूप है । तुम्हारा संशय तो तुम्हें प्रत्यक्ष ही है। ऐसी दशा में तुम्हें जीव का प्रत्यक्ष हो हो रहा है । इसके अतिरिक्त 'मैंने किया', 'मैं करता हूँ', 'मैं करूँगा' इत्यादि रूप से तीनों काल सम्बन्धी विविध कार्यों का जो निर्देश किया जाता है उसमें 'मैं' ( अहम् ) रूप जो ज्ञान है वह भी आत्म-प्रत्यक्ष ही है। दूसरी बात यह है कि यदि संशय करने वाला कोई न हो तो 'मैं हूँ या नहीं' यह संशय किसे होगा ? जिसे स्वरूप में ही संदेह हो उसके लिए संसार में कौन-सी वस्तु असंदिग्ध होगी? ऐसे व्यक्ति को सर्वत्र संशय होगा। अनुमान से जीव की सिद्धि करते हुए आगे कहा गया है कि आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि उसके स्मरणादि विज्ञानरूप गुण स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव में आते हैं। जिस गुणी के गुणों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है उस गुणी का भी प्रत्यक्ष अनुभव होता है जैसे घट । १. गा० १५४९-१५५३. १०
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