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विशेषावश्यकभाष्य
१२९ हो सकता।' इंद्रिय-मनोजन्य ज्ञान को परोक्ष सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार ने यही निष्कर्ष निकाला है कि लैंगिक अर्थात् अनुमानजन्य ज्ञान एकान्तरूप से परोक्ष है; अवधिआदि एकान्तरूप से प्रत्यक्ष है; इंद्रिय मनोजन्य ज्ञान संव्यवहारप्रत्यक्ष है । मति और श्रुत :
मति और श्रुत के लक्षणभेद की चर्चा करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो विज्ञान इंद्रिय-मनोनिमित्तक तथा श्रुतानुसारी है वह भावश्रुत है। शेष मति है। दूसरी बात यह है कि श्रुत मतिपूर्वक होता है किन्तु मति श्रुतपूर्वक नहीं होती। भाष्यकार ने इस विषय पर विस्तृत चर्चा की है कि श्रुत मतिपूर्वक होता है, इसका क्या अर्थ है ? द्रव्यश्रुत और भावश्रुत में क्या संबंध है ? द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक होता है अथवा भावश्रुत ?" मति और श्रुत में एक भेद यह भी है कि श्रुत श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि है, शेष मति है। यहां पर एक शंका होती है कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि यदि श्रुत ही है, तो श्रोत्रेन्द्रियजन्य अवग्रह आदि का क्या होगा ? यदि श्रोत्रेन्द्रियजन्य अवग्रह आदि बुद्धि को मति माना जाए तो वह श्रुत नहीं हो सकती; श्रुत मानने पर मति नहीं हो सकती; दोनों मानने पर संकर दोष का प्रसंग उपस्थित होता है। इसका समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि हमारा प्रयोजन यह है कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है, न कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है। कहीं-कहीं पर ( अश्रुतानुसारिणी) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि मति भी होती है ।' पत्रादिगत सामग्री श्रुत का कारण होने से शब्द के समान द्रव्यश्रुत मानी गयी है। अक्षरलाभ भावश्रु त है। शेष मतिज्ञान है ।" अनभिलाष्य पदार्थों का अनन्तवां भाग प्रज्ञापनीय है। प्रज्ञापनीय पदार्थों का अनन्तवां भाग श्रुतनिबद्ध है। ऐसा क्यों ? क्योंकि जो चतुर्दशपूर्वधर होते हैं वे परस्पर षट्स्थानपतित होते हैं और इसीलिए जो सूत्र हैं वे प्रज्ञापनीय भावों के अनन्तवें भाग हैं।' मति और श्रुत के भेद को और स्पष्ट करने के लिए वल्क और शुम्ब के उदाहरण की युक्तियुक्त परीक्षा करते हुए भाष्यकार ने यह सिद्ध किया है कि मति वल्क के समान है और भावश्रु त शुम्ब के समान है। इसी प्रकार अक्षर और अनक्षर के भेद से भो श्रुत और मति की व्याख्या की है ।१० मूक और इतर भेद से मति और श्रुत के भेद का विचार करते हुए आचार्य ने यह प्रतिपादन किया है कि करादिचेष्टा शब्दार्थ ही है, क्योंकि वह १. गा. ९१. २. गा. ९५. ३. गा. १००. ४. गा० १०५. ५. गा० १०६-११३. ६. गा० १२२. ७. गा० १२४. ८. गा० १४१-२ ९. गा० १५४-१६१. १०. गा० १६२-१७०.
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