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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अवधिज्ञान :
अवधिज्ञान का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने नियुक्ति की गाथाओं का बहुत विस्तार से व्याख्यान किया है। भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय भेदों की ओर निर्देश करते हुए चौदह प्रकार के निक्षेपों का बहुत ही विस्तृत विवेचन किया है।' नारक और देवों को पक्षियों के नभोगमन की भाँति जन्म से ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। शेष प्राणियों को गुणप्रत्यय अर्थात् अपने कर्म के क्षयोपशम के कारण यदाकदा होता है। उनके लिए ऐसा नियम नहीं कि उन्हें जन्म से हो हो । मनःपर्ययज्ञान :
मनःपर्ययज्ञान से मनुष्य के मानसिक परिचिंतन का प्रत्यक्ष होता है । यह ज्ञान मनुष्यक्षेत्र तक सीमित है, गुणप्रत्ययिक है और चारित्रशील को होता है । दूसरे शब्दों में जो संयत है, सर्वप्रमादरहित है, विविध ऋद्धियुक्त है वही इस ज्ञान का अधिकारी होता है । मनःपर्ययज्ञान का विषय चिन्तित मनोद्रव्य है, क्षेत्र नरलोक है, काल भूत और भविष्यत् का पल्योपमासंख्येय भाग है । मनःपर्ययज्ञानी चिन्तित मनोद्रव्य को साक्षात् देखता व जानता है किन्तु तद्भासित बाह्य पदार्थ को अनुमान से जानता है। केवलज्ञान :
केवलज्ञान सर्वद्रव्य तथा सर्वपर्यायों को ग्रहण करता है । वह अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, एक ही प्रकार का है। यह ज्ञान सर्वावरणक्षय से उत्पन्न होने वाला है, अतः सर्वोत्कृष्ट है, सर्वविशुद्ध है, सर्वगत है । केवली किसी भी अर्थ का प्रतिपादन प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा ही करता है। उसका वाग्योग प्रत्यक्ष ज्ञान पर अवलंबित होता है। यही वाग्योग श्रुत का रूप धारण करता है ।' इस प्रकार केवलज्ञान के स्वरूप की चर्चा के साथ ज्ञानपंचक का अधिकार समाप्त होता है। समुदायार्थद्वार :
पंचज्ञान की चर्चा के साथ मंगलरूप तृतीय द्वार समाप्त होता है तथा समु. दायार्थरूप चतुर्थ द्वार का व्याख्यान प्रारंभ होता है। ज्ञानपंचक में से यह किस ज्ञान का मंगलार्थ अर्थात् अनुयोग है ? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि मतिज्ञानादि में श्रुत का प्रकृतानुयोग है, अन्य का नहीं क्योंकि दूसरे प्रकार के ज्ञान पराधीन होते हैं तथा परबोध में प्रायः समर्थ नहीं होते। श्रुतज्ञान दीपक
१. गा० ५६८-८०८.
२. गा० ८१०-४.
३. गा० ८२३-८३६.
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