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भाष्य ओर भाष्यकार
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गद्य ), ३. बृहत्संग्रहणी (प्राकृत पद्य ), ४. बृहरक्षेत्रसमास (प्राकृत पद्य ), ५. विशेषणवती ( प्राकृत पद्य ), ६. जीतकल्प ( प्राकृत पद्य), ७. जीतकल्पभाष्य (प्राकृत पद्य ), ८. अनुयोगद्वारचूणि ( प्राकृत गद्य )', ९. ध्यानशतक (प्राकृत पद्य )। अन्तिम ग्रंथ अर्थात् ध्यानशतक के कर्तृत्व के विषय में अभी विद्वानों को संदेह है। संघदासगणि:
संघदासगणि भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दो भाष्य उपलब्ध हैं : बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पंचकल्प-महाभाष्य । मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए हैं : एक वसुदेवहिडि-प्रथम खण्ड के प्रणेता और दूसरे बृहत्कल्प-लघुभाष्य तथा पंचकल्प-महाभाष्य के प्रणेता । ये दोनों आचार्य एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं क्योंकि वसुदेवहिंडि-मध्यम खंड के कर्ता आचार्य धर्मसेनगणि महत्तर के कथनानुसार वसुदेवहिंडि-प्रथम खंड के प्रणेता संघदासगणि 'वाचक' पद से विभूषित थे, जबकि भाष्यप्रणेता संघदासगणि 'क्षमाश्रमण' पदालंकृत हैं । आचार्य जिनभद्र का परिचय देते समय हमने देखा है कि केवल पदवी-भेद से व्यक्ति-भेद की कल्पना नहीं की जा सकती। एक ही व्यक्ति विविध समय में विविध पदवियां धारण कर सकता है। इतना ही नहीं, एक ही समय में एक ही व्यक्ति के लिए विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न पदवियों का प्रयोग किया जा सकता है । कभी-कभी तो कुछ पदवियाँ परस्पर पर्यायवाची भी बन जाती हैं। ऐसी दशा में केवल 'वाचक' और 'क्षमाश्रमण' पदवियों के आधार पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन पदवियों को धारण करने वाले संघदासगणि भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे । मुनि श्री पुण्य विजयजी ने भाष्यकार तथा वसुदेवहिंडिकार आचार्यों को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने के लिए एक और हेतु दिया है जो विशेष बलवान् है । आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती ग्रंथ में वसुदेवहिंडि-प्रथम खंड में चित्रित ऋषभदेवचरित की संग्रहणी गाथाएँ बनाकर उनका अपने ग्रंथ में समावेश भी किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वसुदेवहिंडिप्रथम खंड के प्रणेता संघदासगणि आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं । भाष्यकार संघदासगणि भी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती ही है ।
१. यह चूणि अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर है जो जिनदास की चूणि तथा
हरिभद्र की वृत्ति में अक्षरशः उद्धृत है । २. नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्युपेत बृहत्कल्पसूत्र (षष्ठ भाग) : प्रस्तावना, पृ० २०.. ३. वही, पृ० २०-२१.
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