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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गाथाओं में रचनाविषयक कोई उल्लेख नहीं है । वे कहते हैं कि खण्डित अक्षरों को हम यदि किसी मंदिर का नाम मान लें तो इन दोनों गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं रह जाता । ऐसी अवस्था में उसकी शक संवत् ५३१ में रचना हुई, ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव यह है कि वह प्रति उस समय लिखी जाकर उस मंदिर में रखी गई हो। इस मत की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण भी दिये जा सकते हैं :
१--ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही मिलती है, अन्य किसी प्रति में नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि ये गाथाएँ मूलभाष्य की न होकर प्रति लिखी जाने तथा उक्त मंदिर में रखी जाने के समय की सूचक हैं.। जैसलमेर की प्रति मन्दिर में रखी गई प्रति के आधार पर लिखी गई होगी।
२-यदि इन गाथाओं को रचनाकालसूचक माना जाए तो इनकी रचना आचार्य जिनभद्र ने की है, यह भी मानना ही पड़ेगा । ऐसी स्थिति में इनकी टीका भी मिलनी चाहिए। परन्तु बात ऐसी नहीं है। आचार्य जिनभद्र द्वारा प्रारंभ की गई विशेषावश्यकभाष्य की सर्वप्रथम टीका में अथवा कोट्याचार्य और मलधारी हेमचन्द्र की टीकाओं में इन गाथाओं की टीका नहीं मिलती । इतना ही नहीं अपितु इन गाथाओं के अस्तित्व को सूचना तक नहीं है ।
इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि ये गाथाए आचार्य जिनभद्र ने न लिखी हों अपितु उस प्रति की नकल करने-कराने वालों ने लिखी हों । ऐसी स्थिति में यह भी स्वतः सिद्ध है कि इन गाथाओं में निर्दिष्ट समय रचना समय नहीं अपितु प्रतिलेखनसमय है । कोट्टार्य के उल्लेख से यह भी निश्चित है कि आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति विशेषावश्यकभाष्य है। इस भाष्य की स्वोपज्ञ टीका उनकी मृत्यु हो जाने के कारण पूर्ण न हो सकी ।'
यदि विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित उक्त प्रति का लेखनसमय शक संवत् ५३१ अर्थात् विक्रम संवत् ६६६ माना जाए तो विशेषावश्यकभाष्य का रचनासमय इससे पूर्व ही मानना पड़ेगा । यह भी हम जानते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्र की अन्तिम कृति थी और उसकी स्वोपज्ञ टीका भी उनकी मृत्यु के कारण अपूर्ण रही, ऐसी दशा में यदि यह माना जाए कि जिनभद्र का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५०-६६० के आसपास रहा होगा तो अनुचित नहीं है ।
आचार्य जिनभद्र ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है : १. विशेषावश्यकभाष्य (प्राकृत पद्य ), २. विशेषावश्यकभाष्यस्वोपज्ञवृत्ति ( अपूर्ण-संस्कृत
१. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ० ३२-३.
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