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आचारांग नियुक्ति
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मुर्मुर ।' पाँचवें उद्देशक में वनस्पति की चर्चा है । इसके भी वे ही द्वार हैं जो पृथ्वी काय के हैं । बादर बनस्पति के दो भेद हैं : प्रत्येक और साधारण । प्रत्येक के बारह प्रकार हैं । साधारण के तो अनेक भेद हैं किन्तु संक्ष ेप में उसके भी छः भेद किये जा सकते हैं । प्रत्येक के बारह भेद ये हैं : १. वृक्ष, २. गुच्छ, ३. गुल्म, ४. लता, ५ वल्लि, ६. पर्वक, ७. तृण, ८. वलय, ९. हरित, १०. औषधि, ११. जलरुह, १२. कुहुण । साधारण के छ: भेद इस प्रकार हैं : १. अग्रबोज, २. मूलबीज, ३. स्कन्धबीज, ४. पर्वबीज, ५. बीजरुह और ६. सम्मूर्च्छनज । छठे उद्देशक में त्रसकाय की चर्चा की गई है । सकाय के भी वे ही द्वार हैं जो पृथ्वीकाय के हैं । त्रसजीव दो प्रकार के हैं: लब्धित्रस और गतित्रस । तेजस् और वायु लब्धि के अन्तर्गत है । गतित्रस के चार भेद हैं: नारक, तिर्यक्, - मनुष्य और सुर । ये या तो पर्याप्तक होते हैं आ अपर्याप्तक । ३ सप्तम उद्देशक में वायुकाय का विचार किया गया है। इसके भी पृथ्वीकाय के समान ही द्वार हैं । - वायुकाय के जीव दो प्रकार के होते हैं: सूक्ष्म और बादर । बादर के पाँच भेद हैं : उत्कलिका, मण्डलिका, गुंजा, वन और शुद्ध । यहाँ तक प्रथम अध्ययन का अधिकार है ।
द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है । इसके प्रथम उद्देशक में 'स्वजन' का अधिकार है, जिसमें यह बताया गया है कि श्रमण माता-पिता आदि के प्रति मोह ममता न रखे । दूसरे उद्देशक में संयमसम्बन्धी अदृढत्व की निवृत्ति - का उपदेश है । तृतीय उद्देशक में मान न करने की सूचना दी गई है । चौथा • उद्देशक भोगों की निःसारता पर है । पाँचवाँ उद्देशक लोकाश्रय की निवृत्ति से - सम्बन्ध रखता है । छठे उद्देशक में अममत्व की परिपालना का उपदेश है "। 'लोकविजय' में दो पद हैं : 'लोक' और 'विजय' | 'लोक' का निक्षेप आठ प्रकार का है और 'विजय' का छः प्रकार का । भावलोक का अर्थ है कषाय । अतः कषायविजय हो लोकविजय है । कषाय की उत्पत्ति कर्म के - कारण होती है । कर्म संक्ष ेप में दस प्रकार का है : नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समुदानकर्म, ईर्यापथिककर्म, आधाकर्म, तपः कर्म, कृतिकर्म और भावकर्म । "
तीसरे अध्ययन का नाम शीतोष्णीय है । इसमें चार उद्देशक हैं । प्रथम - उद्देशक में भावसुप्त के दोषों पर प्रकाश डाला गया है । दूसरे में भावसुप्त के अनुभव में आने वाले दुःखों का विचार किया गया है । तीसरे में इस बात
१. गा० ११६ -८. ४. गा० १६४-६.
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३. गा० १५२-४.
६. गा० १७५. ७. गा० १९२-३.
२. गा० १२६-१३०.
५. गा० १७२.
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