________________
आचारांग नियुक्ति
१०३.
६. ध्रुव, ७ महापरिज्ञा, ८. विमोक्ष और ९. उपधानश्रुत । ये नौ आचार हैं, शेष आचाराय हैं । '
अब इन अध्ययनों के अर्थाधिकार बताते हैं । प्रथम अध्ययन का अधिकार जीवसंयम है, दूसरे का अष्टविध कर्मविजय है, तीसरे का सुख-दुःखतितिक्षा है, चौथे का सम्यक्त्व की दृढ़ता है, पांचवें का लोकसार रत्नत्रयाराधना है, छठे का निःसंगता है, सातवें का मोहसमुत्थ परीषहोपसर्गसहनता है, आठवें का निर्याण अर्थात् अन्तक्रिया है और नौवें का जिनप्रतिपादित अर्थश्रद्धान है । "
शस्त्रपरिज्ञा में दो पद हैं: शस्त्र और परिज्ञा : शस्त्र का निक्ष ेप नामादि चार प्रकार का है । खड्ग, अग्नि, विष, स्नेह, आम्ल, क्षार, लवणादि द्रव्यशस्त्र हैं। दुष्प्रयुक्त भाव ही भावशस्त्र है । परिज्ञा भी नामादि भेद से चार प्रकार की है । द्रव्यपरिज्ञा दो प्रकार की है : ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा । भावपरिज्ञा भी दो प्रकार की है : ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा । द्रव्यपरिज्ञा में ज्ञाता अनुपयुक्त होता है जबकि भावपरिज्ञा में ज्ञाता को उपयोग होता है । 3
इसके बाद नियुक्तिकार सूत्रस्पर्शी नियुक्ति प्रारंभ करते हैं । सर्वप्रथम 'संज्ञा' का निक्षेप करते हुए कहते हैं कि सचित्तादि (हस्त, ध्वज, प्रदीपादि ) से होनेवाली संज्ञा द्रव्यसंज्ञा है । भावसंज्ञा दो प्रकार की है : अनुभवनसंज्ञा और ज्ञानसंज्ञा । मति आदि ज्ञानसंज्ञा है । कर्मोदयादि के कारण होने वाली संज्ञा अनुभवनसंज्ञा है । यह सोलह प्रकार की है : आहार, भय, परिग्रह, मैथुन, सुख, दुःख, मोह, विचिकित्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, लोक, धर्म धर्म ओर ओघ ।
'दिक्' का निक्षेप सात प्रकार का है : नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रज्ञापक और भाव । द्रव्यादि दिशाओं का स्वरूप बताने के बाद आचार्य भावदिशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि भावदिशाएँ अठारह हैं: चार प्रकार के मनुष्य ( सम्मूर्च्छनज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तरद्वीपज ), चार प्रकार के तिर्यंच ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय), चार प्रकार के काय ( पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु ), चार प्रकार के बीज ( अग्र, मूल, स्कन्ध, पर्व ) देव और नारक । " चूँकि जीव इन अठारह प्रकार के भावों से युक्त होता है और उसका इनसे व्यपदेश होता है इसलिए इन्हें भावदिशाएँ कहा जाता है । यहाँ तक शस्त्रपरिज्ञा के प्रथम उद्देश का अधिकार है ।
द्वितीय उद्देशक के प्रारंभ में पृथ्वी का निक्षेपादि पद्धति से विचार किया
३. गा० ३६-७.
१. गा० ३१-२. ४. गा० ३८- ९.
Jain Education International
२. गा० ३३-४.
५. गा० ४०-६०.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org