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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मनुष्यपरिगृहीत और तिर्यक्परिगृहीत।' मासकल्पप्रकृत सूत्रों की व्याख्या करते हुए ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पतन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका आदि पदों का निक्षेपपद्धति से विवेचन किया गया है। आगे की कुछ गाथाओं में जिनकल्पिक
और स्थविरकल्पिक के आहार-विहार की चर्चा है। व्यवशमनप्रकृत सूत्र की नियुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं कि क्षमित, व्यवशमित, विनाशित और क्षपित एकार्थबोधक पद हैं। प्राभृत, प्रहेणक और प्रणयन एकार्थवाची हैं । प्रथम उद्देशक के अन्त में आर्यक्षेत्रप्रकृत सूत्र का व्याख्यान है जिसमें 'आर्य' पद का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन बारह प्रकार के निक्षेपों से विचार किया गया है। आर्यक्षेत्र की मर्यादा भगवान् महावीर के समय से ही है, इस बात का निरूपण करते हुए आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण करने से लगने वाले दोषों का स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त के साथ दिग्दर्शन किया गया है। साथ ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र की रक्षा और वृद्धि के लिए आर्यक्षेत्र के बाहर विवरने की आज्ञा भो दी गई है जिसका संप्रतिराज के दृष्टान्त से समर्थन किया गया है। इसी प्रकार आगे के उद्देशकों का भी निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया है ।
३. गा. २६७८.
१. गा. ८९१-२. R. गा. ३२६३.
२. गा. १०८८-११२०. ५. गा. ३२७१-३२८९.
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