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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति र्थक बताया है । आचार का अध्ययन करने से श्रमणधर्म का ज्ञान होता है, अतः आचार को प्रथम गणिस्थान दिया गया है। संपदा दो प्रकार की होती है : द्रव्यसंपदा और भावसंपदा । शरीरसंपदा द्रव्यसंपदा है। आचार आदि भावसंपदा है।
चित्तसमाधिस्थान नामक पंचम अध्ययन की नियुक्ति में 'चित्त' और 'समाधि' का निक्षेपपूर्वक व्याख्यान किया गया है। चित्त नाम, स्थापना, द्रव्य
और भावरूप से चार प्रकार का है। इसी प्रकार समाधि भी चार प्रकार की है । भावचित्त की समाधि ही भावसमाधि है। रागद्वेषरहित चित्त जब विशुद्ध धर्मध्यान में लीन होता है तभी उसकी समाधि भावसमाधि कही जाती है।
उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन की नियुक्ति में 'उपासक' और "प्रतिमा' का निक्षेपपूर्वक व्याख्यान किया गया है । उपासक चार प्रकार का होता है : द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक । जो सम्यग्दृष्टि है तथा श्रमण की उपासना करता है वह भावोपासक है । उसे श्रमण भी कहते हैं । प्रतिमा नामादि चार प्रकार की है। सद्गुणधारणा का नाम भाव प्रतिमा है। वह दो प्रकार की है : भिक्षुप्रतिमा और उपासकप्रतिमा । भिक्षुप्रतिमाएं बारह है। उपासकप्रतिमाओं को संख्या ग्यारह है। प्रस्तुत अधिकार उपासकप्रतिमा का है।
सप्तम अध्ययन में भिक्षुप्रतिमा का अधिकार है । भावभिक्षु की प्रतिमा पाँच प्रकार की होती है : समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा और एकविहारप्रतिमा :
समाहि उवहाणे य विवेगपडिमाइआ ।
पडिसंलीणा य तहा एगविहारे अ पंचमिआ ॥ अष्टम अध्ययन की नियुक्ति में पर्युषणाकल्प का व्याख्यान किया गया है। परिवसना, पर्युषणा, पर्युपशमना, वर्षावास, प्रथमसमवसरण, स्थापना और ज्येष्ठग्रह एकार्थक हैं :
परिवसणा पज्जुसणा, पज्जोसमणा य वासवासो य ।
पढमसमोसरणं ति य ठवणा जेट्ठोग्गहेगट्ठा ॥ साधुओं के लिए वर्षा ऋतु में चार मास तक एक स्थान पर रहने का जो विधान है उसी का नाम वर्षावास है। उन्हें हेमन्त के चारमास और ग्रीष्म के चार मास इन आठ महीनों में भिन्न-भिन्न स्थानों में विचरना चाहिए।
नवम अध्ययन में मोहनीयस्थान का अधिकार है। मोह नामादि चार प्रकार
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