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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गया है। इसके लिए निम्नोक्त द्वारों का आधार लिया गया है : निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, शस्त्र, वेदना, वध और निवृत्ति ।'
पृथ्वी का निक्षेप चार प्रकार का है : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । जो जीव पृथ्वो-नामादि कर्मों को भोगता है वही भावपृथ्वी है ।
प्ररूपणाद्वार की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि पृथ्वीजीव दो प्रकार के हैं । सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म जीव सर्वलोकव्यापी हैं। बादर पृथ्वी के पुनः दो भेद हैं : श्लक्ष्ण और । श्लक्ष्ण के कृष्ण, नील, लोहित, पीत और शुक्ल वर्णरूप पांच भेद हैं। खर के पृथ्वी, शर्करा, बालुका आदि छत्तीस भेद है । बादर और सूक्ष्म दोनों ही या तो पर्याप्तक होते हैं या अपर्याप्तक ।
लक्षणद्वार की व्याख्या इस प्रकार है : पृथ्वोकाय के जीवों में उपयोग, योग, अध्यवसाय, मति और श्रुतज्ञान, अचक्षुर्दर्शन, अष्टविधकर्मोदय, लेश्या, संज्ञा, उच्छवास और कषाय होते हैं ।
परिमाणद्वार का व्याख्यान इस प्रकार है : बादर-पर्याप्त्तक-पृथ्वीकायिक संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येय भागप्रमाण हैं, शेष तीन (बादर-अपर्याप्तक एवं सूक्ष्म-पर्याप्तक और अपर्याप्तक) में से प्रत्येक असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण है।
उपभोगद्वार की व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं कि चलते हुए, बैठते हुए, सोते हुए, उपकरण लेते हुए, रखते हुए आदि अनेक अवसरों पर पृथ्वीकाय के जीवों का हनन होता है ।
हल, कुलिक, विष, कुद्दाला, लित्रक, मृगशृंग, काष्ठ, अग्नि, उच्चार, प्रस्रवण आदि द्रव्यशस्त्र हैं। असंयम भावशस्त्र है ।
जिस प्रकार पादादि अंग-प्रत्यंग के छेदन से मनुष्यों को वेदना होती है उसी प्रकार छेदन-भेदन से पृथ्वीकाय के जीवों को भी वेदना होती है । ___वध तीन प्रकार का होता है : कृत, कारित और अनुमोदित । अनगार श्रमण मन, वचन और काय से तीनों प्रकार के वध का त्याग करते हैं। यही निवृत्तिद्वार है । इसके साथ शस्त्रपरिज्ञा का द्वितीय उद्देशक समाप्त होता है।
तृतीय उद्देशक में अप्काय की चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते है कि अपकाय के भी उतने ही द्वार हैं जितने पृथ्वोकाय के हैं। अतः इनका विशेष विवेचन करना आवश्यक नहीं है। चौथे उद्देशक में तेजस्काय की चर्चा है जिसमें बादर अग्नि के पाँच भेद किये गये हैं : अंगार, अग्नि, अचि, ज्वाला और
१. गा० ६८. ४. गा० ८४. ८. गा० ९७.
२. गा० ६९-७०. ३. गा० ७१-९. ५. गा० ८६. ६. गा० ९२-४. ७. गा० ९५-६. ९. गा० १०१-५. १०. गा० १०६.
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