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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आचार का प्रवर्तन कब हुआ ? सभी तीर्थङ्करों ने तीर्थ-प्रवर्तन के आदि में आचारांग का प्रर्वतन किया। शेष ग्यारह अंगों का आनुपूर्वी से निर्माण
हुआ।
आचारांग प्रथम अंग क्यों है, इसका कारण बताते हैं । आचारांग द्वादशांगों में प्रथम है क्योंकि इसमें मोक्ष के उपाय का प्रतिपादन है जो सम्पूर्ण प्रवचन का सार है । __चूंकि आचारांग के अध्ययन से श्रमणधर्म का परिज्ञान होता है इसलिए इसका प्रधान अर्थात् आद्य गणिस्थान है ।।
इसका परिमाण इस प्रकार है : इसमें नौ ब्रह्मचर्याभिधायी अध्ययन हैं, अठारह हजार पद हैं, पांच चूडाएँ हैं । ____ इन चूडाओं का ब्रह्मचर्याध्ययन में समवतरण होता है । ये ही पुनः छः कार्यो में, पाँच व्रतों में, सर्व द्रव्यों में और पर्यायों के अनन्तवें भाग में अवतरित होती है।"
अब अन्तिम द्वार का स्वरूप बताते हैं। अंगों का सार क्या है ? आचार। आचार का सार क्या है ? अनुयोगार्थ । अनुयोगार्थ का सार क्या है ? प्ररूपणा । प्ररूपणा का सार क्या है ? चरण । चरण का सार क्या है ? निर्वाण । निर्वाण का सार क्या है ? अव्याबाध । यही सर्वोत्कृष्ट सार है-अन्तिम ध्येय है।
चूंकि भावश्रुतस्कन्ध ब्रह्मचर्यात्मक है अतः ब्रह्म और चरण का निक्षेप करते हैं । ब्रह्म की और इसी प्रकार ब्राह्मण की नामादि चार स्थानों से उत्पत्ति होती है। भावब्रह्म संयम है। ब्राह्मण के प्रसंग को दृष्टि में रखते हुए नियुक्तिकार सात वर्णों और नौ वर्णान्तरों का भी वर्णन करते हैं । एक मनुष्यजाति के सात वर्ण ये हैं : क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, ब्राह्मण, संकरक्षत्रिय, संकरवैश्य और संकरशूद्र । नौ वर्णान्तर ये हैं : अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, अयोगव, मागध, सूत, क्षत, विदेह और चाण्डाल । ___चरण नामादि भेद से छः प्रकार का होता है । भावचरण गति, आहार और गुण के भेद से तीन प्रकार का होता है।
मूल और उत्तरगुण की स्थापना करने वाले नौ अध्याय निम्नलिखित हैं : १. शस्त्रपरिज्ञा २. लोकविजय, ३. शीतोष्ण, ४. सम्यक्त्व, ५. लोकसार,
१. गा० ८. २. गा० ९. ३. गा० १० । ४. गा० ११ ५. गा० १२-४. ६. गा० १६-७. ७. गा० १८-२२. ८.गा० २९-३०.
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