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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कथा का व्याख्यान हो चुका है ' सूत्रस्पशिक नियुक्ति करते हुए आचार्य 'धर्म' शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :-धर्म दो प्रकार का होता है : अगारधर्म और अनगारधर्म । अगारधर्म बारह प्रकार का है : पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अनगारधर्म दस प्रकार का है : क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । धान्य २४ प्रकार का होता है : १. यव, २. गोधूम, ३ शालि, ४. व्रीहि, ५. षष्टिक ६. कोद्रव, ७. अणुक, ८. कंगु, ९. रालक, १०. तिल, ११. मुद्ग, १२. माष, १३. अतसी, १४. हरिमंथ, १५. त्रिपुटक, १६. निष्पाव, १७. सिलिंद, .१८. राजमाष,
१९. इक्षु, २०. मसूर, २१, तुवरी, २२. कुलत्थ, .२३. धान्यक, २४. कलाय । : रत्न २४ प्रकार के होते हैं : १. सुवर्ण, २. वपु, ३. ताम्र, ४ रजत, ५. लौह, . ६. सीसक, ७. हिरण्य, ८. पाषाण, ९. वज्र, १०. मणि, ११. मौक्तिक, १२. " प्रवाल, १३. शंख, १३. तिनिश, १५. अगरु, १६. चंदन, १७. वस्त्र, १८.
अमिल, १९. काष्ठ, २०. चर्म, २१. दन्त, २२. वाल, २३ गंध और २४. द्रव्योषध । स्थावर के तीन भेद हैं : भूमि, गृह और तरु । द्विपद दो प्रकार के हैं : चक्रारबद्ध और मानुष । चतुष्पद दस प्रकार के हैं : गो, महिषी, उष्ट्र, अज, एडक, अश्व, अश्वतर, घोटक, गर्दभ और हस्ती। काम दो प्रकार का है : संप्राप्त और असंप्राप्त । संप्राप्त काम चौदह प्रकार का और असंप्राप्त काम दस प्रकार का है । असंप्राप्त काम के दस प्रकार ये हैं : अर्थ, चिता, श्रद्धा, संस्मरण, विक्लवता, लज्जानाश, प्रमाद, उन्माद, तद्भावना और मरण । संप्राप्त काम के चौदह प्रकार ये हैं : दृष्टिसंपात, संभाषण, हसित, ललित, उपहित, दंतनिपात, नखनिपात, चुंबन, आलिंगन, आदान, करण, आसेवन, संग और क्रीड़ा ।
सप्तम अध्ययन का नाम वाक्यशुद्धि है। 'वाक्य' का निक्षेप चार प्रकार का है। भाषाद्रव्य को द्रव्यवाक्य कहते हैं। भाषा शब्द भाववाक्य है। वाक्य के एकार्थक शब्द ये हैं : वाक्य, वचन, गिरा, सरस्वती, भारती, गो, वाक्, भाषा, प्रज्ञापनी, देशनी, वाग्योग, योग । सत्यभाषा जनपदादि के भेद से दस प्रकार की होती है; मृषाभाषा क्रोधादि के भेद से दस प्रकार की होती है; मिश्रभाषा उत्पन्नादि भेद से अनेक प्रकार की होती है; असत्यमृषा आमंत्रणी आदि भेद से अनेक तरह की होती है। शुद्धि का निक्षेप भी नामादि चार प्रकार का है । भावशुद्धि तीन प्रकार की है : तद्भाव, आदेशाभाव और प्राधान्यभाव ।।
१. गा. २४५. ३. गा. २५०-२६२. ५. गा. २७३-६.
२. गा. २४६-८. ४. गा. २६९-२७०.
६. गा. २८६.
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