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उत्तराध्ययननियुक्ति
युद्धांग ये हैं : यान (हस्त्यादि), आवरण (कवचादि), प्रहरण (खड्गादि), कुशलत्व ( प्रावीण्य ), नीति, दक्षत्व ( आशुकारित्व ), व्यवसाय, शरीर (अंहीनांग) और आरोग्य ।' यहाँ तक द्रव्यांग का व्याख्यान है । ___ भावांग दो प्रकार का है : श्रुतांग और नोश्रुतांग । श्रुतांग आचारादि भेद से बारह प्रकार का है। नोश्रुतांग चार प्रकार का है ये चार प्रकार हो चतुरंगीय के रूप में प्रसिद्ध हैं। संसार में ये चार भावांग दुर्लभ हैं : मानुष्य, धर्मश्रुति, श्रद्धा और वीर्य (तप और संयम में पराक्रम)।२ ___ अंग, दशभाग, भेद, अवयव, असकल, चूर्ण, खण्ड, देश, प्रदेश, पर्व, शाखा, पटल, पर्यवखिल-ये सब शरीरांग के पर्याय हैं। संयम के पर्याय ये हैं : दया, संयम, लज्जा, जुगुप्सा, अछलना, तितिक्षा, अहिंसा और ह्री।
आगे नियुक्तिकार ने उदाहरणों की सहायता से यह बताया है कि मनुष्यभव की प्राप्ति कितनी दुर्लभ है, मनुष्यभव प्राप्त हो जाने पर भी धर्मश्रुति कितनी कठिन है, धर्मश्रुति का लाभ होने पर भी उस पर श्रद्धा करना कितना कठिन है, श्रद्धा हो जाने पर भी तप और संयम में वीर्य अर्थात् पराक्रम करना तो और भी कठिन है। श्रद्धा की चर्चा करते समय जमालिप्रभृति सात निह्नवों का परिचय दिया गया है।" ___ चतुर्थ अध्ययन का नाम 'असंस्कृत' है। इसकी नियुक्ति करते समय सर्वप्रथम प्रमाद और अप्रमाद दोनों का निक्षेप किया गया है। प्रमाद और अप्रमाद दोनों नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से चार प्रकार के होते हैं। इनमें से द्रव्य और भावप्रमाद पाँच प्रकार के होते हैं : मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा । अप्रमाद के भी पाँच प्रकार हैं जो इनसे विपरीत हैं। ___ जो उत्तरकरण से कृत अर्थात् निर्वतित है वह संस्कृत है । शेष असंस्कृत है। करण का निक्षेप छ: प्रकार का होता है : नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्यकरण दो प्रकार का होता है : संज्ञाकरण और नोसंज्ञाकरण । संज्ञाकरण पुनः तीन प्रकार का है : कटकरण, अर्थकरण और वेलुकरण । नोसंज्ञाकरण दो प्रकार का है : प्रयोगकरण और विश्रसाकरण । विश्रसाकरण के पुनः दो भेद हैं : सादिक और अनादिक । अनादिक तीन प्रकार का है : धर्म, अधर्म और आकाश । सादिक दो प्रकार का है : चक्षुःस्पर्श और अचक्षुःस्पर्श। प्रयोगकरण के दो भेद हैं : जीवप्रयोगकरण और अजीवप्रयोगकरण ।
३. गा० १५७-८.
१, गा० १५४. ४. गा० १५९-१७८.
२. गा० १५५-६. ५. गा० १७९-१८१
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