________________
उत्तराध्ययननियुक्ति
अर्थात् समुदायार्थं दिया गया है। आगे प्रत्येक अध्ययन का विशेष व्याख्यान किया गया है ।
प्रथम अध्ययन का नाम विनयश्रुत है । 'विनय' का विचार पहले हो चुका है ।' 'श्रुत' का नामादि चार प्रकार का निक्षेप होता है । निह्नवादि द्रव्यश्रुत हैं । जो श्रुत में उपयुक्त है वह भावश्रुत है । इसके बाद 'संयोग' शब्द की सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति करते हुए आचार्य ने छः एवं दो प्रकार के निक्षेप से 'संयोग' की अति विस्तृत व्याख्या की है । इसमें संस्थान, अभिप्रेत अनभिप्रेत, अभिलाप, सम्बन्धन, अनादेश, आदेश, आत्मसंयोग, बाह्यसंयोग आदि विषयों का बहुत विस्तार से विवेचन किया है । विनय के प्रसंग से आचार्य और शिष्य के गुणों का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि इन दोनों का संयोग कैसे होता है । संबन्धनसंयोग संसार का हेतु है क्योंकि यह कर्मपाश के कारण होता है । इसे नष्ट कर जीव मुक्ति का वास्तविक आनन्द भोगता है ।
४
विनयश्रुत की बारहवीं गाथा में 'गलि' शब्द आता है । इसके पर्यायवाची शब्द ये हैं : गण्डि, गलि, मरालि । 'आकीर्ण' शब्द के पर्याय ये हैं : आकीर्ण, विनीत, भद्रक ।" 'गलि' का प्रयोग अविनीत के लिये है और 'आकीर्ण' का प्रयोग विनीत के लिए ।
दूसरे अध्ययन का नाम परीषह है । परीषह का न्यास अर्थात् निक्षेप चार प्रकार का है । इनमें से द्रव्यनिक्षेप दो प्रकार का है : आगमरूप नोआगमरूप | नोआगम परीषह पुनः तीन प्रकार का है : ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त । कर्म और नोकर्मरूप से द्रव्यपरीषह दो प्रकार का भी होता है । नोकर्मरूप द्रव्यपरीषह सचित्त, अचित्त और मिश्ररूप से तीन प्रकार का है । भावपरीषह में कर्म का उदय होता हैं । उसके द्वार ये हैं : कुतः ( कहाँ से) कस्य ( किसका ), द्रव्य, समवतार, अध्यास, नय, वर्त्तना, काल, क्षेत्र, उद्देश, पृच्छा, निर्देश और सूत्रस्पर्श । बादरसम्पराय गुणस्थान में बाईस, सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में चौदह, छद्मस्थवीतराग गुणस्थान में भी चौदह और केवली अवस्था में ग्यारह परीषह होते हैं ।
९७
क्षुत्पिपासा अदि परीषहों की विशेष व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने विविध उदाहरणों द्वारा यह समझाया है कि श्रमण को किस प्रकार इन परीषहों
१. दशवेकालिक, अध्ययन ९ (विनयसमाधि) की नियुक्ति ।
२. गा० २९.
४. गा० ६२.
५. गा० ६४.
७. गा० ७९.
Jain Education International
३. गा० ३०-५७. ६. गा० ६५-८.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org