________________
दशवैकालिकनियुक्ति
अष्टम अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है। आचार का निक्षेप पहले हो चुका है । प्रणिधि दो प्रकार की है : द्रव्यप्रणिधि और भावप्रणिधि । निधानादि द्रव्यप्रणिधि है । भावप्रणिधि के दो भेद हैं : इन्द्रियप्रणिधि और नोइन्द्रियप्रणिधि । ये पुनः प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार की होती हैं।'
विनयसमाधि नामक नवम अध्ययन की नियुक्ति में आचार्य भावविनय के पाँच भेद करते हैं : लोकोपचार, अर्थनिमित्त, कामहेतु, भयनिमित्त और मोक्षनिमित्त । मोक्ष निमित्तक विनय पाँच प्रकार का है : दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचारसम्बन्धी।
दसवें अध्ययन का नाम सभिक्षु है । सकार का निक्षेप नामादि चार प्रकार का है। द्रव्यसकार प्रशंसादिविषयक है। भावसकार तदुपयुक्त जीव है। निर्देश, प्रशंसा और अस्तिभाव में सकार का प्रयोग होता है। प्रस्तुत अध्ययन में निर्देश, और प्रशंसा का अधिकार है 13 भिक्षु का निक्षेप भी नामादि चार प्रकार का है । भावभिक्षु दो प्रकार का है : आगमतः और नोआगमतः। भिक्षुपदार्थ में उपयुक्त आगमतः भावभिक्षु है। भिक्षुगुणसंवेदक नोआगमतः भावभिक्षु है ।४ भिक्षु के पर्याय ये हैं : तीर्ण, तायी, द्रव्य, व्रती, क्षांत, दांत, विरत, मुनि, तापस, प्रज्ञापक, ऋजु, भिक्षु, बुद्ध, यति, विद्वान्, प्रवजित, अनगार, पासण्डी, चरक, ब्राह्मण, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, साधु, रुक्ष, तीरार्थी। इनमें से अधिकांश शब्द 'श्रमण' के पर्यायों में आ चुके हैं ।
चूलिकाओं की नियुक्ति करते हुए कहा गया है कि 'चुलिका' का निक्षेप द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावपूर्वक होता है। कुक्कुटचूडा आदि सचित द्रव्यचूडा है, मणिचुडा आदि अचित्त द्रव्यचूडा है और मय रशिखा आदि मिश्र द्रव्यचूडा है। भावचूडा क्षायोपशमिक भावरूप है ।६ 'रति' का निक्षेप नामादि चार प्रकार का है । जो रति कर्म के उदय के कारण होती है वह भावरति है। जो धर्म के प्रति रतिकारक है वह अधर्म के प्रति अरतिकारक है।
१. गा. २९३-४. ३. गा. ३२८-९. ५. गा.३४५-७. १७. गा. ३६२-७.
२. गा. ३०९-३२२. ४. गा. ३४१. ६. गा. ३५९-३६१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org