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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
को सहन करना चाहिए ।" इस प्रसंग से आचार्य ने जैन परम्परा में आने वाली अनेक महत्त्वपूर्ण एवं शिक्षाप्रद कथाओं का संकलन किया है । तीसरे अध्ययन का नाम चतुरंगीय है । एक के बिना चार नहीं होते हैं अतः नियुक्तिकार सर्वप्रथम 'एक' का निक्षेप पद्धति से विचार करते हैं । इसके लिए सात प्रकार के 'एकक' का निर्देश करते हैं : १. नामैकक, २. स्थापनैकक ३. द्रव्यैकक, ४. मातृकापदैकक, ५ संग्रहैकक, ६. पर्यवैंकक, और ७. भावेकक । 'एकक' की विस्तृत व्याख्या दशवेकालिकनियुक्ति में हो चुकी है । 'चतुष्क' अर्थात् चार का सात प्रकार का निक्षेप है : नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना और भाव । प्रस्तुत अधिकार गगना का है । ३
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'अंग' का निक्षेप चार प्रकार का है : नामांग, स्थापनांग, द्रव्यांग, और भावांग । इनमें से द्रव्यांग छः प्रकार का होता है : १. गंधांग, २. औषधांग, ३. मद्यांग, ४. आतोद्यांग, ५. शरीरांग और ६. युद्धांग ।
गंधांग निम्नलिखित हैं : जमदग्निजटा (वालक), हरेणुका ( प्रियंगु ), शबर - निवसनक ( तमालपत्र ), सपिन्निक, मल्लिकावासित, ओसीर, ह्रीबेर, भद्रदारु ( देवदारु), शतपुष्पा, तमालपत्र, । इनका माहात्म्य यही है कि इनसे स्नान और विलेपन किया जाता है । वासवदत्ता ने उदयन को हृदय में रखते हुए इनका सेवन किया था ।"
औषधांग की गुटिका में पिण्डदारु, हरिद्रा, माहेन्द्रफल, सुण्ठी, पिप्पली, मरिच, आर्द्र, बिल्वमूल और पानी - ये आठ वस्तुएँ मिली हुई होती हैं । इससे कंडु, तिमिर, अर्द्धशिरोरोग, पूर्णशिरोरोग, तार्त्तीयीक और चातुर्थिक ज्वर ( तिजरा और चौथे दिन आने वाला बुखार), मूषक और सर्पदंश शीघ्र ही दूर हो जाते हैं।
द्राक्षा के सोलह भाग ( सोलह दाखें ), धातकीपुष्प के चार भाग और एक आढक इक्षुरस - इनसे मद्यांग बनता है । आढक का नाप मागध मान से समझना चाहिए ।
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एक मुकुन्दातूर्य, एक अभिमारदारुक, एक शाल्मलीपुष्प – इनके बंध से आमोडक अर्थात् पुष्पोन्मिश्र वालबंधविशेष होता है । यही आतोद्यांग है । "
अब शरीरांग के नाम बताते हैं । सिर, उर, उदर, पीठ, बाहु (दो) और उरु (दो) – ये आठ अंग हैं । शेष अंगोपांग हैं ।"
१. गा० ८९ - १४१. ५. गा० १४६-८. ९. गा० १५३.
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२. गा० १४२. ३. गा० १४३. ४. गा० १४४-५. ६. गा० १४९-१५०. ७. गा० १५१. ८. गा० १५२.
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