________________
आवश्यक नियुक्ति
करता है वह स्वादिम है । प्रत्याख्यान के गुणों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि प्रत्याख्यान से आस्रव के द्वार अर्थात् कर्मागम के द्वार बंद हो जाते हैं, फलतः आस्रव का उच्छेद होता है । आस्रवोच्छेद से तृष्णा का नाश होता है । तृष्णोच्छेद से मनुष्य के अन्दर अतुल उपशम अर्थात् मध्यस्थभाव पैदा होता है । मध्यस्थभाव से पुनः प्रत्याख्यान की विशुद्धि होती है । इससे शुद्ध चारित्रधर्म का उदय होता है जिससे कर्मनिर्जरा होती है और क्रमशः अपूर्वकरण होता हुआ श्रेणिक्रम से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । अन्त में शाश्वत सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है । प्रत्याख्यान दस प्रकार के आकारों से ग्रहण किया व पाला जाता है : १. नमस्कार, २. पौरुष्य, ३ पुरिमार्द्ध, ४. एकाशन, ५. एकस्थान, ६. आचाम्ल, ७. अभक्तार्थं, ८ चरम, ९. अभिग्रह, १०. विकृति | 3
अब प्रत्याख्याता का स्वरूप बताते हैं । प्रत्याख्याता गुरु होता है जो यथोक्तविधि से शिष्य को प्रत्याख्यान कराता है । गुरु मूलगुण और उत्तरगुण से शुद्ध तथा प्रत्याख्यान की विधि जानने वाला होता है । शिष्य कृतिकर्मादि की विधि जानने वाला, उपयोगपरायण, ऋजु प्रकृति वाला, संविग्न और स्थिरप्रतिज्ञ होता है |
प्रत्याख्यातव्य का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि प्रत्याख्यातव्य दो प्रकार का होता है : द्रव्यप्रत्याख्यातव्य और भावप्रत्याख्यातव्य । अशनादि का प्रत्याख्यान प्रथम प्रकार का है । अज्ञानादि का प्रत्याख्यान दूसरे प्रकार का है । 4
विनीत एवं अव्याक्षिप्तरूप से शिष्य के उपस्थित होने पर प्रत्याख्यान कराना चाहिए । यही पर्षद द्वार है ।
कथनविधि इस प्रकार है : आज्ञाग्राह्य अर्थात् आगमग्राह्य विषय का कथन आगम द्वारा ही करना चाहिए; दृष्टान्तवाक्य अर्थ का कथन दृष्टान्त द्वारा ही करना चाहिए। ऐसा न करने से कथनविधि की विराधना होती है । "
८७
फल का व्याख्यान करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि प्रत्याख्यान का फल ऐहलौकिक और पारलौकिक दो प्रकार का होता है । ऐहलौकिक फल के दृष्टान्त के रूप में धमिलादि और पारलौकिक फल के दृष्टान्त के रूप में दामन्नकादि समझने चाहिए । जिनवरोपदिष्ट प्रत्याख्यान का सेवन करके अनन्त जीव शीघ्र ही शाश्वत सुखरूप मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं ।" फल प्रत्याख्यान का
१. गा. १५८१ - २. ४. गा. १६०७-९. ७. गा. १६१३.
Jain Education International
२. गा. १५८८-१५९० . ३. गा. १५९१-९६०६.
५. गा. १६११.
६. गा. १६१२.
८. गा. १६१४- ५.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org