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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दस अध्ययन हैं । काल का प्रयोग इसलिए है कि इस सूत्र की रचना उस समय हुई जबकि पौरुषी व्यतीत हो चुकी थी अथवा जो दश अध्ययन पूर्वो से उद्धृत किये गये उनका सुव्यवस्थित निरूपण विकाल अर्थात् अपराह्न में किया गया इसीलिए इस सत्र का नाम दशवकालिक रखा गया। इस सूत्र की रचना मनक नामक शिष्य के आधार से आचार्य शय्यम्भव ने की।'
दशवकालिकसूत्र में द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा की गई है। दूसरे अध्ययन में धृति की स्थापना की गई है और बताया गया है कि यही धर्म है। तीसरे अध्ययन में क्षुल्लिका अर्थात् लघु आचारकथा का अधिकार है। चौथे अध्ययन में आत्मसंयम के लिए षड्जीवरक्षा का उपदेश दिया गया है। पंचम अध्धयन भिक्षाविशुद्धि से सम्बन्ध रखता है । भिक्षाविशुद्धि तप और संमम का पोषण करने वाली है। छठे अध्ययन में महती अर्थात् बृहद् आचारकथा का प्रतिपादन किया गया है। सप्तम अध्ययन में वचनविभक्ति का अधिकार है। आठवां अध्ययन प्रणिधान अर्थात् विशिष्ट चित्तधर्मसम्बन्धी है । नवें अध्ययन में विनय का तथा दसवें में भिक्षु का अधिकार है । इन अध्ययनों के अतिरिक्त इस सूत्र में दो चूलिकाएं भी है । प्रथम चूलिका में संयम में स्थिरीकरण का अधिकार है और दूसरी में विविक्तचर्या का वर्णन है । यह दशवकालिक का संक्षिप्त अर्थ है ।२
द्रुमपुष्पिका नामक प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में सामान्य श्रुताभिधान चार प्रकार का बताया गया है : अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा । आत्मा की कर्ममल से मुक्ति ही भावाध्ययन है । द्रुम और पुष्प का निक्षेप करते हुए कहा गया है कि द्रुम नाम, स्थापना, द्रव्य और भावभेद से चार प्रकार का है । इसी प्रकार पुष्प का निक्षेप भी चार प्रकार का है। द्रुम के पर्यायवाची शब्द ये हैं : द्रुम, पादप, वृक्ष, अगम, विटपी, तरु, कुह, महीरुह, रोपक, रुञ्चक, । पुष्प के एकार्थक शब्द ये हैं : पुष्प, कुसुम, फुल्ल, प्रसव, सुमन, सूक्ष्म ।।
सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति करते हुए आचार्य 'धर्म' पद का व्याख्यान इस प्रकार करते हैं कि धर्म चार प्रकार का होता है : नामधर्म, स्थापनाधर्म, द्रव्य धर्म और भावधर्म । धर्म के लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद भी होते हैं। लौकिक धर्म अनेक प्रकार का होता है। गम्यधर्म, पशुधर्म, राज्यधर्म, पुरवरधर्म, ग्रामधर्म, गणधर्म, गोष्ठोधर्म, राजधर्म आदि लौकिक धर्म के भेद हैं। लोकोत्तर
१. गा १२, ५. ३. गा. २६-७.
२. गा. १९-२५. ४. गा. ३५-६.
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