________________
दशवेकालिक नियुक्ति
९१
धर्म दो प्रकार का है : श्रुतधर्म और चारित्रधर्मं । श्रुतधर्मं स्वाध्यायरूप है और चारित्रधर्मं श्रमणधर्म रूप है ।"
मंगल भी द्रव्य और भावरूप होता है । पूर्णकलशादि द्रव्यमंगल है | घमं भावमंगल है | 2
:
हिंसा के प्रतिकूल अहिंसा होती है । उसके भी द्रव्यादि चार भेद होते हैं । प्राणातिपात विरति आदि भाव अहिंसा है । 3
आचार्य संयम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय की मन, वचन, और काय से यतना रखना संयम है ।
४
तप बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है । अनशन, ऊनोदरता, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलोनता बाह्य तप के भेद हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग आभ्यंतर तप के भेद हैं ।"
हेतु और उदाहरण की उपयोगिता बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं श्रोता की योग्यता को ध्यान में रखते हुए पांच अथवा दस अवयवों का प्रयोग किया जा सकता है । उदाहरण दो प्रकार का होता है । ये दो प्रकार पुनः चारचार प्रकार के होते हैं । हेतु चार प्रकार का होता है । हेतु का प्रयोजन अर्थ की सिद्धि करना है। आचार्य ने उदाहरण का स्वरूप समझाने के लिए अनेक दृष्टान्त देते हुए उदाहरण के विविध द्वारों का विस्तृत विवेचन किया है । उदा-हरण के चार तरह के दोष इस प्रकार हैं : अधर्मयुक्त, प्रतिलोम, आत्मोपन्यास और दुरुपनीत ।" हेतु के चार प्रकार ये हैं : यापक, स्थापक, व्यंसक और लूषक प्रथम अध्ययन में भ्रमर का उदाहरण अनियतवृत्तित्व का दिग्दर्शन कराने के लिए.. दिया गया है ।"
सूत्रस्पर्शी नियुक्ति करते हुए आचार्य विहंगम शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :- विहंगम दो प्रकार का होता है : द्रव्यविहंगम और भावविहंगम | जिस पूर्वोपात्त कर्म के उदय के कारण जीव विहंगमकुल में उत्पन्न होता है वह द्रव्यविहंगम है । भावविहंगम के पुनः दो भेद हैं : गुणसिद्ध और संज्ञासिद्ध जो विह अर्थात् आकाश में प्रतिष्ठित है उसे गुणसिद्ध विहंगम कहते हैं । जो आकाश में गमन करते हैं अर्थात् उड़ते हैं वे सभी संज्ञासिद्ध विहंगम हैं । प्रस्तुत प्रसंग
१. गा. ३९-४३. २. गा. ४४.
३. गा. ४५.
Jain Education International
४. गा. ४६.
५. गा. ४७- ८.
६. गा. ५०- १.
७. गा. ८१-५.
८. गा. ८६-८.
९. गा. ९७.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org