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आवश्यक नियुक्ति
का आधार लेकर आचार्यं ध्यान की चर्चा छेड़ देते हैं ।
ध्यान का स्वरूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि अन्तर्मुहूर्त के लिए जो चित्त की एकाग्रता है वही ध्यान है । ध्यान चार प्रकार का होता है : आर्त्त, रुद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से प्रथम दो प्रकार संसारवर्धन के हेतु हैं और अन्तिम दो प्रकार विमोक्ष के हेतु हैं । प्रस्तुत अधिकार अन्तिम दो प्रकार के ध्यान का ही है । इतना सामान्य संकेत करने के बाद नियुक्तिकार ध्यान से -सम्बन्ध रखने वाली अन्य बातों का वर्णन करते हैं । ४
कायोत्सर्ग मोक्षपथप्रदाता है, ऐसा समझकर धीर श्रमण दिवसादिसंबंधी अतिचारों का परिज्ञान करने के लिए कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं । ये अतिचार -कौन से हैं ? नियुक्तिकार आगे की कुछ गाथाओं में विविध प्रकार के अतिचारों - का स्वरूप व उनसे शुद्ध होने का उपाय बताते हैं । साथ ही कायोत्सर्ग की 'विधि की ओर भी संकेत करते हैं । साधुओं को चाहिए कि सूर्य के रहते हुए ही प्रस्रवणोच्चार कालसम्बन्धी भूमि को अच्छी तरह देख कर अपने-अपने स्थान पर आकर सूर्यास्त होते ही कायोत्सर्ग में स्थित हो जाएँ ।" दैवसिक, -रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणों के कायोत्सर्ग नियत हैं, गमनादिविषयक शेष कायोत्सर्ग अनियत हैं । अब नियतकायोत्सर्गों के उच्छ्वासों की संख्या बताते हैं : दैवसिक में सौ उच्छ्वास, रात्रिक में पचास, 'पाक्षिक में तीन सौ चातुर्मासिक में पाँच सौ, सांवत्सरिक में एक हजार आठ इसी प्रकार प्रत्येक प्रकार के कायोत्सर्ग के लिए 'लोगस्सुज्जोयगरे' के पाठ भी 'नियत हैं : देवसिक कायोत्सर्ग में चार, रात्रिक में दो, पाक्षिक में बारह, चातुर्मासिक में बोस और सांवत्सरिक में चालीस । अनियतकायोत्सर्ग के लिए भी इसी प्रकार के निश्चित नियम हैं ।
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अशठद्वार का व्याख्यान करते हुए कहा गया हैं कि साधु अपनी शक्ति की मर्यादा के अनुसार ही कायोत्सर्ग करे । शक्ति की सीमा का उलंघन करने से अनेक दोष उत्पन्न होने का भय रहता है ।
शठद्वार की व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं कि कायोत्सर्ग के समय छल"पूर्वक नींद लेना, सूत्र अथवा अर्थ की प्रतिपृच्छा करना, कांटा निकालना, प्रस्रवण अर्थात् पेशाब करने चले जाना आदि कार्य दोषपूर्ण हैं । इनसे अनुष्ठान झूठा हो जाता है । "
१. गा. १४५७. २. गा. १४५८. ३. गा. १४५९. ४. गा. १४६०-१४९१._ ५. गा. १५१२. ६. गा. १५२४-५. ७. गा. १५२६. ८. गा. १५३६. ९. गा. १५३८.
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