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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ९. वन्दना किसलिए करनी चाहिए।' इन हागे का निर्देश करने के बाद वन्द्यावन्द्य का बहुत विस्तार के साथ विचार किया गया है। श्रमणों को चाहिए कि वे असंयती माता, पिता, गुरु, सेनापति, प्रशासक, राजा, देव-देवी आदि को वन्दना न करें । जो संयती है, मेधावी है, सुसमाहित है, पंचसमिति और त्रिगुप्ति से युक्त है उसी श्रमण को वन्दना करें। पार्श्वस्थ आदि संयमभ्रष्ट संन्यासियों की वन्दना करने से न तो कोति मिलती है, न निर्जरा ही होती है। इस प्रकार की वन्दना कायक्लेश मात्र है जो केवल कर्मबंध का कारण है। इसके बाद संसर्ग से उत्पन्न होने वाले गुण-दोषों का वर्णन करते हुए आचार्य ने समुद्र के दृष्टान्त से यह समझाया है कि जिस प्रकार नदियों का मीठा पानी समुद्र के लवणजल में गिरते ही खारा हो जाता है उसी प्रकार शीलवान् पुरुष शीलभ्रष्ट पुरुषों की संगति से शीलभ्रष्ट हो जाते हैं। केवल बाह्य लिंग से प्रभावित न होकर पर्याय, पर्षद्, पुरुष, क्षेत्र, काल आगम आदि बातें जान कर जिस समय जैसा उचित प्रतीत हो उस समय वैसा करना चाहिए।५ जिनप्रणीत लिंग को वन्दना करने से विपुल निर्जरा होती है, चाहे वह पुरुष गुणहीन ही क्यों न हो, क्योंकि वन्दना करनेवाला अध्यात्मशुद्धि के लिए ही वन्दना करता है। अन्यलिंगी को जान-बूझकर नमस्कार करने से दोष लगता है क्योंकि वह निषिद्ध लिंग को धारण करता है। संक्षेप में जो द्रव्य और भाव से सुश्रमण है वही वन्द्य है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विविध भंगों का विचार करने के बाद आचार्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्रइन तीनों का सम्यक् योग होने पर ही सम्पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। अतः जो हमेशा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय आदि में लगे रहते हैं वे ही वंदनीय हैं और उन्हीं से जिनप्रवचन का यश फैलता है।'
वंदना करनेवाला पंचमहाव्र ती आलस्यरहित, मानपरिवजितमति, संविग्न और निर्जरार्थी होता है। जो आलसी, अभिमानी और पाप से भय न रखने, वाला होता है उसमें वंदना करने की योग्यता कैसे आ सकती है ?
जो धर्मकथा आदि से पराङ्मुख है अथवा प्रमत्त है उसे कभी भी वंदना न करे। जिस समय कोई आहार अथवा नीहार कर रहा हो उस समय उसे वन्दना न करे । जिस समय वह प्रशान्त, आसनस्थ और उपशान्त हो उसी समय उसके पास जाकर वन्दना करे।
१. गा० १११०-१. २. गा० १११३-४. ३. गा० १११६. ४. गा० ११२७-८. ५. गा० ११३६. ६. गा० ११३९. ७. गा० ११४५-७. ८. गा० ११६७-१२००. ९. गा० १२०४ १०. १२०५-६.
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