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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पंचनमस्कार के बाद सामायिकवत ग्रहण किया जाता है क्योंकि पंचनमस्कार सामायिक का ही एक अंग है । सामायिक किस प्रकार करना चाहिए, इसका करण, भय, अन्त अथवा भदन्त, सामायिक, सर्व, अवद्य, योग, प्रत्याख्यान, यावज्जोवन और त्रिविध पदों को व्याख्या के साथ विवेचन किया गया है।' सामायिक का लाभ कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सामायिक के सर्वघाती और देशघाती कर्मस्पर्द्धकों में से देशघाती स्पर्द्धकों की विशुद्धि की अनन्तगुणवृद्धि होने पर आत्मा को सामायिक का लाभ होता है। 'साम', 'सम' और 'सम्यक्' के आगे 'इक' पद जोड़ने से जो पद बनते हैं वे सभी सामायिक के एकार्थक पद हैं । उनका नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों से विचार हो सकता है। सामायिक के और भी एकार्थक पद ये हैं : समता, सम्यक्त्व, प्रशस्त, शान्ति, शिव, हित, शुभ, अनिन्द्य, अगहित, अनवद्य । हे भगवन् ! मैं सामायिक करता हूँ-करेमि भंते ! सामाइयं-यहाँ पर कौन कारक है, क्या करण है और क्या कर्म है ? कारण और करण में भेद है या अभेद ? आत्मा ही कारक है, आत्मा ही कर्म है और आत्मा हो करण है। आत्मा का परिणाम ही सामायिक है अतः आत्मा ही कर्ता, कर्म और करण है।' संक्षेप में सामायिक का अर्थ है तोन करण और तोन योग से सावध क्रिया का त्याग ।। तीन करण अर्थात् करना, कराना और करते हुए का अनुमोदन करना, तीन योग अर्थात् मन, वचन और काया; इनसे होनेवाली सावध अर्थात् पापकारिणी क्रिया का जीवनपर्यन्त त्याग, यही सामायिक का उद्देश्य है । चतुर्विंशतिस्तव : ___आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्ययन चतुर्विशतिस्तव है। 'चतुविंशति' शब्द का छः प्रकार का और 'स्तव' शब्द का चार प्रकार का निक्षेप-न्यास है । चतुर्विंशतिनिक्षेप के छः प्रकार ये हैं : नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । स्तवनिक्षेप के चार प्रकार ये हैं : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । पुष्प आदि सामग्री से पूजा करना द्रव्यस्तव है। सद्गुणों का उत्कीर्तन भावस्तव है । द्रव्यस्तव और भावस्तव में भावस्तव ही अधिक गुण वाला है क्योंकि जिन-वचन में षड् जीव की रक्षा का प्रतिपादन किया गया है। जो लोग यह सोचते हैं कि द्रव्यस्तव बहुगुण वाला है वे अनिपुणमति वाले हैं । द्रव्यस्तव में षड्जीव की रक्षा का विरोध आता है अतः संयमविद् साधु द्रव्यस्तव की इच्छा नहीं रखते हैं।
१. गा० १०२३-१०३४. २. गा० १०३५. ३. गा० १०३७. ४. गा० १०४०. ५. गा० १०४१-२. ६. गा० १०५९.
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