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आवश्यक नियुक्ति
७७.
है वही भावाचार्य है ।' उपाध्याय भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से चार प्रकार के होते हैं । जो द्वादशांग का स्वयं अध्ययन करता है तथा दूसरों को वाचनारूप से उपदेश देता है उसे उपाध्याय कहते हैं । 'उपाध्याय' पद की दूसरी नियुक्ति इस प्रकार है : उपाध्याय के लिए 'उज्झा' शब्द है । 'उ' का अर्थ है उपयोगकरण और 'ज्झा' का है ध्यानकरण । इस प्रकार 'उज्झा' का अर्थ है उपयोगपूर्वक ध्यान करनेवाला । उपाध्याय के लिए एक और शब्द है ‘उपाज्झाउ' । 'उ' का अर्थ है उपयोगकरण, 'पा' का अर्थ है पाप का परिवर्जन, 'झा' का अर्थ है ध्यानकरण ओर 'उ' का अर्थ है उत्सारणाकर्म । इस प्रकार 'उपाज्झाउ' का अर्थ है उपयोगपूर्वक पाप का परिवर्जन करते हुए ध्यानारोहण से कर्मों का उत्सारण-अपनयन करने वाला । साधु भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से चार प्रकार के होते हैं । जो निर्वाण साधक व्यापार की साधना करता है उसे साधु कहते हैं अथवा जो सर्वभूतों में समभाव रखता है वह साधु है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँचों को नमस्कार करने से सभी प्रकार के पापों का नाश होता है । यह पंच नमस्कार सब मंगलों में प्रथम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ मंगल है।" यहाँ तक वस्तुद्वार का अधिकार है। आक्षेपद्वार में यह बताया गया है कि नमस्कार या तो संक्षेप में करना चाहिए या विस्तार से । संक्षेप में सिद्ध और साधु-इन दो को ही नमस्कार करना चाहिए। विस्तार से नमस्कार करने की अवस्था में ऋषभादि अनेक नाम लिए जा सकते हैं। अतः पंचविध नमस्कार उपयुक्त नहीं है । इस आक्षेप का प्रसिद्धि द्वार में निराकरण किया गया है । उसमें यह सिद्ध किया गया है कि पंचविध नमस्कार सहेतुक है अतः उपयुक्त है, अनुपयुक्त नहीं। इसके बाद क्रमद्वार है : इसमें जिस क्रम से नमस्कार किया गया है उसे युक्तियुक्त बताया गया है। पहले सिद्धों को नमस्कार न करके अरिहंतों को नमस्कार इसलिए किया गया है कि अरिहंतों के उपदेश से ही सिद्ध जाने जाते हैं अतः अरिहतों का विशेष माहात्म्य है। प्रयोजनद्वार में नमस्कार का उद्देश्य कर्मक्षय और मंगलागम बताया गया है। फलद्वार की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि नमस्कार का फल दो प्रकार का है : ऐहलौकिक और पारलौकिक । अर्थ, काम, आरोग्य, अभिरति आदि ऐहलौकिक फल के अन्तगंत हैं । पारलौकिक फल में सिद्धि, स्वर्ग, सुकुलप्राप्ति आदि का समावेश होता है। यहाँ तक नमस्कारविषयक विवेचन है।
१. गा० ९८७-८. ४. गा० १००२-४. ७. गा० १०१४.
२. गा० ९९५. ५. गा० १०१२. ८. गा० १०१६.
३. गा० ९९७. ६. गा० १०१३. ९. गा० १०१७-८.
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