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आवश्यकनियुक्ति
७५.
चित्त में प्राणिमात्र के प्रति समभाव है वहो सामायिक में स्थित है। इसी प्रकार शेष द्वारों की भी नियुक्तिकार ने संक्षेप में व्याख्या की है। इस द्वारों को व्याख्या के साथ उपोद्धातनियुक्ति समाप्त हो जाती है ।
उपोद्धात का यह विस्तार केवल आवश्यकनियुक्ति के लिए ही उपयोगी नहीं है। इसकी उपयोगिता वास्तव में सभी नियुक्तियों के लिए है। इसमें वर्णित भगवान् ऋषभदेव और महावीर के जीवन-चरित्र एवं तत्संबद्ध अन्य तथ्य प्राचीन जैन इतिहास एवं संस्कृति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । जैन आचार और विचार की रूपरेखा समझने के लिए यह अंश बहुत उपयोगी है। इसके बाद आचार्य नमस्कार का व्याख्यान करते हैं । नमस्कार :
सामायिकनियुक्ति की सूत्रस्पर्शी व्याख्या का प्रारंभ यहीं से होता है । इसके पूर्व सामायिक सम्बन्धी अन्य ज्ञातव्य बातों का विवरण दिया गया है । सामायिकसूत्र के प्रारंभ में नमस्कार मन्त्र आता है अतः नमस्कार को नियुक्ति के रूप में आचार्य उत्पत्ति निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल-इन ग्यारह द्वारों से नमस्कार की चर्चा करते हैं । ३ उत्पत्ति आदि द्वारों का उनके भेद-प्रभेदों के साथ अति विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ उसके कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों का परिचय दिया जाता है । ___ जहाँ तक नमस्कार की उत्पत्ति का प्रश्न है, वह उत्पन्न भी है और अनुत्पन्न भी है, नित्य भी है और अनित्य भी है । नयदृष्टि से विचार करने पर स्याद्वादियों के मत में इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। नमस्कार में चार प्रकार के निक्षेप हैं : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । पद के पाँच प्रकार हैं : नामिक, नैपातिक, औपसर्गिक, आख्यातक और मिश्र । 'नमस्' पद नैपातिक हैं क्योंकि यह निपातसिद्ध है। 'नमस्' पद का अर्थ द्रव्यसंकोच और भावसंकोच है।" प्ररूपणा के दो, चार, पाँच, छः और नौ भेद हो सकते हैं। उदाहरण के लिए छः भेद इस प्रकार हैं : १. नमस्कार क्या है, २. किससे सम्बन्ध रखता है, ३. किस कारण से प्राप्त होता है, ४. कहाँ रहता है, ५. कितने समय तक रहता है, ६. कितने प्रकार का होता है ? नौ भेद ये हैं : १. सत्पदप्ररूपणता, २. द्रव्यप्रमाण, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शना, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाग, ८. भाव, ९. अल्पबहुत्व । अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये पाँचों
१. गा० ७९८-९. २. गा० ८००-८८०. ३. गा० ८८१. ४. गा० ८८२. ५. गा० ८८४. ६. गा० ८८५. ७. गा० ८८९...
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