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आवश्यकनियुक्ति
चतुर्विशतिस्तव के लिए आवश्यक सूत्र में 'लोगस्सुज्जोयगरे' का पाठ है । इसकी नियुक्ति करते हुए आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि 'लोक' ( लोग ) शब्द का निम्नोक्त आठ प्रकार के निक्षेप से विचार हो सकता है : नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल भव, भाव और पर्याय ।' आलोक्यते इति 'आलोकः', प्रलोक्यते इति : 'प्रलोकः', लोक्यते इति 'लोकः', संलोक्यते इति 'संलोकः'-ये सभी शब्द एकार्थक हैं ।२ 'उद्योत' ( उज्जोय ) दो प्रकार का है : द्रव्योद्योत और भावोद्योत । अग्नि, चन्द्र, सूर्य, मणि, विद्युतादि द्रव्योद्योत हैं । ज्ञान भावोद्योत है। चौबीस जिनवरों को जो लोक के उद्योतकर कहा जाता है वह भावोद्योत की अपेक्षा से है, न कि द्रव्योद्योत की अपेक्षा से । 'धर्म' भी दो प्रकार का है : द्रव्यधर्म और भावधर्म । भावधर्म के पुनः दो भेद हैं : श्रुतधर्म और चरणधर्म । श्रुत का स्वाध्याय श्रुतधर्म है । चारित्ररूप धर्म चरणधर्म है। इसे श्रमणधर्म कहते हैं । यह क्षान्त्यादिरूप दस प्रकार का है।" 'तीर्थ' के मुख्यरूप से चार निक्षेप हैं : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इनमें से प्रत्येक के पुनः अनेक प्रकार हो सकते हैं । जहाँ अनेक भवों से संचित अष्टविध कर्मरज तप और संयम से धोया जाता है वह भावतीर्थ है । जिनवर अर्थात् तीर्थङ्कर इसी प्रकार के धर्मतीर्थ को स्थापना करते हैं । इसीलिए उन्हें 'धर्मतीर्थकर' (धम्मतित्थयर ) कहते हैं। उन्हें 'जिन' इसलिए कहते हैं कि उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषों को जीत लिया है । कर्मजररूपी अरि का नाश करने के कारण उन्हें 'अरिहंत' भी कहते हैं। इसके बाद नियुक्तिकार चौबीस तीर्थङ्करों के नाम की निक्षेप पद्धति से व्याख्या करते हैं । फिर उनकी विशेषताओं-गुणों पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ 'चातुविंशतिस्तव' नामक द्वितीय अध्ययन की नियुक्ति समाप्त हो जाती है । वन्दना :
तृतीय अध्ययन का नाम वन्दना है। इस अध्ययन की नियुक्ति करते हुए आचार्य सर्वप्रथम यह बताते हैं कि वन्दनाकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म पूजाकर्म और विनयकर्म-ये पांच सामान्यतया वन्दना के पर्याय हैं । वन्दना का नौ द्वारों से विचार किया गया है : १. वन्दना किसे करनी चाहिए, २. किसके द्वारा होनी चाहिए, ३. कब होनी चाहिए, ४. कितनी बार होनी चाहिए, ५. वन्दना करते समय कितनी बार झुकना चाहिए, ६. कितनी बार सिर झुकाना चाहिए, ७. कितने आवश्यकों से शुद्ध होना चाहिए, ८. कितने दोषों से मुक्त होना चाहिए,
१. गा० १०६४. २. गा० १०६५. ३. गा० १०६६-७. ४. गा० १०६८. ५. गा० १०७०-१. ६. गा० १०७२. ७. गा० १०७५. ८. गा० १०८३. ९. गा० १०८७-११०९
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