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प्रास्ताविक
मनोविज्ञान और योगशास्त्र :
विशेषावश्यकभाष्य के सिद्ध-नमस्कार प्रकरण में ध्यान का पर्याप्त विवेचन है । व्यवहार-भाष्य के द्वितीय उद्देश में भाष्यकार ने क्षिप्तचित्त तथा दीप्तचित्त साधुओं की चिकित्सा की मनोवैज्ञानिक विधि बताई है। इसी उद्देश में क्षिप्तचित्त एवं दीप्तचित्त होने के कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है । पंचकल्पमहाभाष्य में प्रव्रज्या की योग्यता-अयोग्यता का विचार करते हुए भाष्यकार ने व्यक्तित्व के बीस भेदों का वर्णन किया है। इसी प्रकार निशीथ-विशेषचूणि में व्यक्तित्व के अड़तालीस भेदों का स्वरूप बताया गया है : अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियाँ और दस प्रकार के नपुंसक । कामविज्ञान : __दशवैकालिक-नियुक्ति में चौदह प्रकार के संप्राप्तकाम और दस प्रकार के असंप्राप्त काम का उल्लेख है। वहत्कल्प-लघुभाष्य के तृतीय उद्देश में पुरुषसंसर्ग के अभाव में गर्भाधान होने के कारणों पर प्रकाश डाला गया है । इसी भाष्य के चतुर्थ उद्देश में हस्तकर्म, मैथन आदि के स्वरूप का वर्णन है । निशीथविशेषचूणि के प्रथम उद्देश में इसी विषय पर विशेष प्रकाश डाला गया है । इसी चूणि के षष्ठ उद्देश में कामियों के प्रेमपत्र-लेखन का विवेचन किया गया है तथा सप्तम उद्देश में विविध प्रकार की काम-क्रीडाओं पर प्रकाश डाला गया है। समाजशास्त्र :
आवश्यक-नियुक्ति में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समय की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। उस समय के आहार, शिल्प, कर्म, लेखन, मानदण्ड, पोत, इषुशास्त्र, उपासना, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, यज्ञ, उत्सव, विवाह आदि चालीस सामाजिक विषयों का उल्लेख किया गया है । आचारांगनियुक्ति में मनुष्य-जाति के सात वर्णों एवं नौ वर्णान्तरों का उल्लेख है। बृहत्कल्प-लघुभाष्य में पांच प्रकार के साथ, आठ प्रकार के सार्थवाह, आठ प्रकार के सार्थ-व्यवस्थापक, छः प्रकार की आर्यजातियाँ, छः प्रकार के आर्यकुल आदि समाजशास्त्र से सम्बन्धित अनेक प्रकार के विषयों का वर्णन है । आवश्यकचणि में आवश्यक-नियुक्ति का ही अनुसरण करते हुए ऋषभदेव के जन्म, विवाह, अपत्य आदि के वर्णन के साथ-साथ तत्कालीन शिल्प, कर्म, लेख आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। निशीथ-विशेषचूर्णि के नवम उद्देश में तीन प्रकार के अन्तःपुरों का वर्णन है । इसी चूणि के सोलहवें उद्देश में जुगुप्सित कुलों का वर्णन किया गया है ।
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