________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अष्टांगनिमित्त और मंत्रविद्या के पारगामी अर्थात् नैमित्तिक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अपने भाई के साथ धार्मिक स्पर्धा करते हुए भद्रबाहुसंहिता तथा उपसर्गहरस्तोत्र की रचना की। अथवा यों भी कह सकते हैं कि इन्हें इन , ग्रन्थों की रचना आवश्यक प्रतीत हुई। नियुक्तिकार तथा उपसर्गहरस्तोत्र के प्रणेता भद्रबाहु एक हैं और वे नैमित्तिक भद्रबाहु हैं, इस मान्यता की पुष्टि के लिए यह प्रमाण दिया जाता है कि आवश्यकनियुक्ति को १२५२ से १२७० तक की गाथाओं में गंधर्व नागदत्त का कथानक है। इस कथानक में नाग का विष उतारने की क्रिया बताई गई है। उपसर्गहरस्तोत्र में भी 'विसहर फुलिंगमंत' इत्यादि से नाग का विष उतारने की क्रिया का ही वर्णन किया गया है । उपर्युक्त "नियुक्तिग्रन्थ में मंत्रक्रिया के प्रयोग के साथ 'स्वाहा' पद का निर्देश भी मिलता है जो रचयिता के तत्सम्बन्धी प्रेम अथवा ज्ञान की ओर संकेत करता है। दूसरी बात यह है कि अष्टांगनिमित्त तथा मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के भाई के सिवाय अन्य कोई प्रसिद्ध नहीं हैं। इससे सहज ही में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उपसर्गहरस्तोत्रादि ग्रन्थों के रचयिता और आवश्यकादि नियुक्तियों के प्रणेता भद्रबाहु एक ही हैं ।
नियुक्तिकार भद्रबाहु की नैमित्तिकता सिद्ध करने वाला एक अन्य प्रमाण भी है । उन्होंने आवश्यक आदि जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी हैं उनमें सूर्यप्रज्ञप्ति का भी समावेश है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे निमित्तविद्या में कुशल एवं रुचि रखने वाले थे। निमित्त विद्या के प्रति प्रेम एवं कुशलता के अभाव में यह ग्रन्थ वे हाथ में न लेते।
पञ्चसिद्धान्तिका के अन्त में शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६२ का उल्लेख है । यह वराहमिहिर का समय है। जब हम यह मान लेते हैं कि नियुक्तिकार भद्रबाहु वराहमिहिर के सहोदर थे तब यह स्वतः सिद्ध है कि आचार्य भद्रबाह विक्रम की छठी शताब्दी में विद्यमान थे और नियुक्तियों का रचना-काल विक्रम संवत् ५००-६०० के बीच में है।
आचार्य भद्रबाहु ने दस नियुक्तियाँ, उपसर्गहरस्तोत्र और भद्रबाहुसंहिताइन बारह ग्रंथों की रचना की । भद्रबाहुसंहिता अनुपलब्ध है। आज जो भद्रबाहु
का अन्तिम संग्रह किया उसके बाद भी उसमें बृद्धि होती रही है। इस स्पष्टीकरण के प्रकाश में यदि हम श्रुतकेवली भद्रबाहु को भी नियुक्तिकार मानें तो अनुचित न होगा।
-मुनि श्री हजारीमल स्मृति-ग्रन्थ, पृ०. ७१८-९. १. महावीर जैन विद्यालय : रजत महोत्सव ग्रंथ, पृ. १९७-८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org