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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नीति, युद्ध, इषुशास्त्र, उपासना, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, बन्ध, घात, ताडन, यज्ञ, उत्सव, समवाय, मंगल, कौतुक, वस्त्र, गन्ध, माल्य, अलंकार, चूला, उपनयन, विवाह, दत्ति, मृतपूजना, ध्यापना, स्तूप, शब्द, खेलापन, पृच्छना-इन चालीस विषयों की ओर भी संकेत किया गया है। इनके निर्माता अर्थात् प्रवर्तक के रूप में ऋषभदेव का नाम आता है । ___ ऋषभदेव के जीवन-चरित्र के साथ ही साथ अन्य सभी तीर्थङ्करों के चरित्र की ओर भी थोड़ा-सा संकेत किया गया है तथा सम्बोधन, परित्याग, प्रत्येक, उपधि, अन्यलिङ्ग-कुलिङ्ग, ग्राम्याचार, परोषह, जीवादितत्त्वोपलम्भ, प्राग्भव-श्रुतलाभ, प्रत्याख्यान, संयम, छद्मस्थकाल, तपःकर्म, ज्ञानोत्पत्ति , साधुसाध्वी-संग्रह, तीर्थ, गण, गणधर, धर्मोपायदेशक, पर्यायकाल, अन्तक्रिया-मुक्ति इन इक्कीस द्वारों से उनके जीवन-चरित्र की तुलना की गई है ।
इसके बाद नियुक्तिकार यह बताते हैं कि सामायिक-अध्ययन की चर्चा के साथ इन सब बातों का वर्णन करने की क्या आवश्यकता थी ? सामायिक के निर्गमद्वार की चर्चा के समय भगवान महावीर के पूर्वभव की चर्चा का प्रसंग आया जिसमें उनके मरीचिजन्म की चर्चा आवश्यक प्रतीत हुई। इसी प्रसंग से भगवान् ऋषभदेव की चर्चा भी की गई क्योंकि मरीचि को उत्पत्ति ऋषभदेव से है ( मरीचि ऋषभदेव का पौत्र था )। इस प्रकार पुनः ऋषभदेव का चरित्र प्रारम्भ होता है । दीक्षा के समय से लेकर वर्षान्त तक पहुँचते हैं और भिक्षालाभ का प्रसंग आता है । इस प्रसंग पर चौबीस तीर्थंकरों के पारणों-उपवास के उपरान्त सर्वप्रथम भिक्षालाभों का वर्णन है । उन्हें जिन नगरों में भिक्षालाभ हुआ उनके नाम ये हैं : हस्तिनापुर, अयोध्या, श्रावस्ती, साकेत, विजयपुर, ब्रह्मस्थल, पाटलिखण्ड, पद्मखण्ड, श्रेयःपुर, रिष्टपुर, सिद्धार्थपुर, महापुर, धान्यकर, वर्धमान, सोमनस, मन्दिर, चक्रपुर, राजपुर, मिथिला, राजगृह, वीरपुर, द्वारवती, कूपकट, कोल्लाकग्राम । जिन लोगों के हाथ से भिक्षालाभ हुआ, उनके नाम भी इसी प्रकार गिनाए गए हैं तथा उससे होने वाले लाभ का भी वर्णन किया गया है।"
ऋषभदेव-चरित्र को आगे बढ़ाते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि बाहुबलि ने भगवान् ऋषभदेव की स्मृति में धर्मचक्र की स्थापना को। ऋषभदेव एक. सहस्त्र वर्ष पर्यन्त छद्मस्थपर्याय में विचरते रहे । अन्त में उन्हें केवलज्ञान हुआ।
१. गा० १८५-२०६. २. गा० २०९-३१२. ३. गा० ३१३. ४. गा० ३२३-३३४.
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