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आवश्यकनियुक्ति इसके बाद उन्होंने पञ्च-महावत की स्थापना की। जिस दिन ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई उसी दिन भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न भी उत्पन्न हुआ । भरत को ये दोनों समाचार मिले। भरत ने सोचा कि पहले कहाँ पहुँचना चाहिए ? पिता की उपकारिता को दृष्टि में रखते हुए पहले वे भगवान् ऋषभदेव के पास पहुंचे और उनकी पूजा की। ऋषभदेव की माता मरुदेवी एवं पुत्र-पुत्री-पौत्रादि सभी उनके दर्शन करने पहुँचे । भगवान् का उपदेश सुनकर उनमें से कइयों को वैराग्य हुआ और उन्होंने भगवान् के पास दोक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेने वालों में भगवान महावीर के पूर्वभव का जीव मरीचि भी था।'
__ ऋषभदेव के ज्येष्ठपुत्र भरत ने देश-विजय की यात्रा प्रारम्भ की। अपने छोटे भाइयों से अधीनता स्वीकार करने के लिए कहा । उन्होंने भगवान् ऋषभदेव के सन्मुख यह समस्या रखी । भगवान् ने उन्हें उपदेश दिया जिसे सुनकर बाहुबलि के अतिरिक्त सभी भाइयों ने दीक्षा ले ली । बाहुबलि ने भरत को युद्ध के लिए आह्वान किया। सेना की सहायता न लेते हुए दोनों ने अकेले ही आपस में लड़ना स्वीकार किया । अन्त में बाहुबलि को इस अधर्म-युद्ध से वैराग्य हो गया और उन्होंने भी दीक्षा ले ली ।२ ____ इसके बाद आचार्य यह बताते हैं कि मरीचि ने किस प्रकार परीपहों से घबड़ाकर त्रिदण्डी संप्रदाय की स्थापना की, भरत ने समवसरण में भगवान् ऋषभदेव से जिन और चक्रवर्ती के विषय में पूछा और भगवान् ने किस प्रकार जिन, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि के विषय में विस्तृत विवेचन किया आदि । भरत ने भगवान् से प्रश्न किया किया कि क्या इस सभा में भी कोई भावी तीर्थङ्कर है ? भगवान् ने ध्यानस्थ परिव्राजक स्वपौत्र मरीचि की ओर संकेत किया और कहा कि यह वीर नामक अन्तिम तीर्थकर होगा तथा अपनी नगरी में आदि वासुदेव त्रिपृष्ठ एवं विदेह क्षेत्र में मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा। यह सुनकर भरत भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार करके मरीचि को नमस्कार करने जाते हैं । नमस्कार करके कहते हैं कि मैं इस परिव्राजक मरीचि को नमस्कार नहीं कर रहा हूँ अपितु भावी तीर्थंकर वीरप्रभु को नमस्कार कर रहा हूँ। यह सुनकर मरीचि गर्व से फूल उठता है और अपने कुल की प्रशंसा के पुल बाँधने लगता है ।
इसके बाद नियुक्तिकार भगवान् के निर्वाण-मोक्ष का प्रसंग उपस्थित करते हैं। भगवान् विचरते-विचरते अष्टापद पर्वत पर पहुँचते हैं जहाँ उन्हें निर्वाण की प्राप्ति होती है। निर्वाण के बाद उनके लिए चिता बनाई जाती है और
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१. गा० ३३५-३४७. २. गा० ३४८-३४९. ३. गा० ३५०-४३२.
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