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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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बाद में उसी स्थान पर स्तूप और जिनालय भी बनते हैं । इसके बाद अँगूठी के गिरने से भारत को आदर्श गृह अर्थात् शीशमहल में कैसे वैराग्य हुआ और उन्होंने किस प्रकार दीक्षा ग्रहण की आदि बातों का विवरण है । भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण के पूर्व मरीचि स्वयं किसी को दीक्षा नहीं देता था अपितु -दीक्षार्थियों को अन्य साधुओं को सौंप देता था और अपनी दुर्बलता स्वीकार करता हुआ भगवान् के धर्म का ही प्रचार करता था किन्तु अब यह बात न रही । उसने कपिल को अपने ही हाथों दीक्षा दी और कहा कि मेरे मत में भी धर्म है । इस प्रकार के दुर्वचन के परिणामस्वरूप वह कोटा- कोटि सागरोपम तक संसार सागर में भटका और कुलमद के कारण नीच गोत्र का भी बन्धन किया । २
महावीर चरित्र :
अनेक भवों को पार करता हुआ मरीचि अन्त में ब्राह्मणकुण्डग्राम में कोडालसगोत्र ब्राह्मण के घर देवानन्दा की कुक्षि में आया । यहीं से भगवान् महावीर का जीवन चरित्र प्रारम्भ होता है । उनके जीवन से सम्बन्ध रखने वाली निम्नलिखित तेरह घटनाओं का निर्देश आवश्यक नियुक्ति में मिलता है : स्वप्न, गर्भापहार, अभिग्रह, जन्म, अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरणज्ञान, भयोसादन, विवाह, अपत्य, दान, सम्बोध और महाभिनिष्क्रमण । देवानन्दा ने गज, वृषभ, सिंह आदि चौदह प्रकार के स्वप्न देखे । हरिनैगमेषी द्वारा गर्भ परिवर्तन किया गया और नई माता त्रिशला ने भी वे हो चौदह स्वप्न देखे । गर्भवास के सातवें मास में महावीर ने यह अभिग्रह प्रतिज्ञा-दृढ़ निश्चय किया कि मैं माता-पिता के जीवित रहते श्रमण नहीं बनूँगा । नौ मास और सात दिन बीतने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को पूर्वरात्रि के समय कुण्डग्राम में महावीर का जन्म हुआ । देवों द्वारा रत्नवर्षा से जन्माभिषेक किया गया ।" महावीर ने माता-पिता के स्वर्गगमन के बाद श्रमणधर्म अंगीकार किया । इस अवस्था में उन्हें अनेक परोषह सहन करने पड़े । गोप आदि द्वारा उन्हें अनेक कष्ट दिए गए । ये प्रतिज्ञाएँ कीं : १. जिस घर में रहने से गृहस्वामी को नहीं रहना, २. प्राय: कायोत्सर्ग में रहना, ३. प्राय: मौन रहना, ४. भिक्षा पात्र में न लेकर हाथ में ही लेना, ५. गृहस्थ को वन्दना - नमस्कार नहीं करना । ८ इन प्रतिज्ञाओं का पूर्णरूप से पालन करते हुए भगवान् महावीर अनेक स्थानों में भ्रमण
जीवन यात्रा के लिए उन्होंने
अप्रीति हो उस घर में
१. गा० ४३३-७. ४. गा० ४५९. ५. ४६०-१. ७. गा० ४६२. ८. गा० ४६३-४.
२. गा० ४३८-४४०. ३. गा० ४५८.
ये गाथाएँ मूल नियुक्ति को नहीं हैं । ६. गा०
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