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आवश्यकनियुक्ति
मन द्वारा चिन्तित अर्थ का मात्र आत्मसापेक्ष ज्ञान मनःपर्ययज्ञान है। यह मनुष्यक्षेत्र तक सीमित है, गुणप्रात्ययिक है तथा चारित्रवानों की सम्पत्ति है ।'
सब द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का सर्वकालभावी तथा अप्रतिपाती ज्ञान केवलज्ञान है । इसमें किसी प्रकार का तारतम्य नहीं होता अतः यह एक ही प्रकार का है । सामायिक :
केवलज्ञानी जिस अर्थ का प्रतिपादन करता है और जो शास्त्रों में वचनरूप से संगृहीत है वह द्रव्यश्रुत है । इस प्रकार के श्रुत का ज्ञान भावथत है। प्रस्तुत अधिकार श्रुतज्ञान का है क्योंकि श्रुतज्ञान से ही जीव आदि पदार्थ प्रकाशित होते हैं । इतना ही नहीं अपितु मति आदि ज्ञानों का प्रकाशक भी श्रुतज्ञान ही है।
इतनी पीठिका-भूमिका बाँधने के बाद नियुक्तिकार सामान्यरूप से सभी तीर्थङ्करों को नमस्कार करते हैं । इसके बाद भगवान् महावीर को विशेषरूप से नमस्कार करते हैं। महावीर के बाद उनके गणधर, शिष्य-प्रशिष्य आदि को नमस्कार करते हैं। इतना करने के बाद यह प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं भी इन सबने श्रुत का जो अर्थ बताया है उसको नियुक्ति अर्थात् संक्षेप में श्रुत के साथ उसी अर्थ की योजना करता हूँ। इसके लिए आवश्यकादि दस सूत्र-ग्रन्थों का आधार लेता हूँ । आवश्यकनियुक्ति में भी सर्वप्रथम सामायिकनियुक्ति की रचना करूँगा क्योंकि यह गुरु परम्परा से उपदिष्ट है। सम्पूर्ण श्रुत के आदि में सामायिक है और अन्त में बिन्दुसार है । श्रुतज्ञान अपने आप में पूर्ण एवं अन्तिम लक्ष्य है, ऐसी बात नहीं । श्रुतज्ञान का सार चारित्र है। चारित्र का सार निर्वाण अर्थात् मोक्ष है और यही हमारा अन्तिम लक्ष्य है ।
जैन आगम-ग्रन्थों में आचारांग सर्वप्रथम माना जाता है किन्तु यहाँ आचार्य भद्रबाहु सामायिक को सम्पूर्ण श्रुत के आदि में रखते हैं, ऐसा क्यों ? इसका कारण यह है कि श्रमण के लिए सामायिक का अध्ययन सर्वप्रथम अनिवार्य है। सामायिक का अध्ययन करने के बाद ही वह दूसरे ग्रन्थों का अध्ययन करता है, क्योंकि चारित्र का प्रारम्भ ही सामायिक से होता है । चारित्र की पांच भूमिकाओं में प्रथम भूमिका सामायिकचारित्र की है। आगमग्रन्थों में भी जहाँ भगवान् महावीर के श्रमणों के श्रुताध्ययन की चर्चा है वहाँ अनेक जगह अंगग्रन्थों के आदि में सामायिक के अध्ययन का निर्देश है।
३. गा० ७८-९.
४. गा० ८०-८६.
१. गा० ७६. ५. गा० ८७.
२. गा० ७७. ६. गा० ९३.
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