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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आभिनिबोधिक ज्ञान की निमित्तभूत पाँच इन्द्रियों में से श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द का ग्रहण करती है, चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय बद्धस्पृष्ट अर्थात् सम्बद्धस्पृष्ट विषयों का ज्ञान करती है।' इस कथन से उन दार्शनिकों की मान्यता का खण्डन भी हो जाता है जो शब्द को मूर्त न मानकर अमूर्त आकाश का गुण मानते हैं तथा चक्षुरिन्द्रिय को प्राप्यकारी मानते हैं । आगे की कुछ गाथाओं में शब्द और भाषा के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
आभिनिबोधिक ज्ञान के निम्नलिखित पर्यायशब्द दिए गए हैं : ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा । इसके बाद आचार्य ने सत्पदप्ररूपणा में गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत्त, पर्याप्तक, सूक्ष्म, संज्ञी, भव और चरम इन सभी द्वारों-दृष्टियों से आभिनिबोधिक ज्ञान के स्वरूप की चर्चा हो सकती है, इसकी ओर संकेत किया है। यहाँ तक आभिनिबोधिक ज्ञान की चर्चा है । इसके बाद श्रुतज्ञान को चर्चा प्रारम्भ होती है। ___ लोक में जितने भी अक्षर हैं और उनके जितने भी संयुक्त रूप बन सकते हैं उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं । ऐसी स्थिति में यह संभव नहीं कि श्रुतज्ञान के सभी भेदों का वर्णन हो सके । यह स्वीकार करते हुए नियुक्तिकार ने केवल चौदह प्रकार के निक्षेप से श्रुतज्ञान का विचार किया है । चौदह प्रकार के श्रुतनिक्षेप इस प्रकार है : अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादिक, सपयंवसित, गमिक, अंगप्रविष्ट, अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य ।
अवधिज्ञान का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि अवधिज्ञान की सम्पूर्ण प्रकृतियाँ अर्थात् भेद तो असंख्य हैं किन्तु सामान्यतया इसके भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो भेद हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त अवधिज्ञान का चौदह प्रकार के निक्षेप से भी विचार हो सकता है । ये चौदह निक्षेप इस प्रकार हैं : स्वरूप, क्षेत्र, संस्थान, आनुगामिक, अवस्थित, चल, तीव्रमन्द, प्रतिपातोत्पाद, ज्ञान, दर्शन, विभंग, देश, क्षेत्र और गति । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव-इन सात निक्षेपों से भी अवधिज्ञान की चर्चा हो सकती है। इतना निर्देश करने के बाद आचार्य ने इन निक्षेपों का विस्तार से विचार किया है । पाँच प्रकार के ज्ञान की स्वरूप-चर्चा में इतना अधिक विस्तार अवधिज्ञान को चर्चा का ही है।
१. गा० ५. २. गा० १२. ३. गा० १३-५. ४. गा० १७-९. ५. गा० २५-९. ६. गा० ३०-७५.
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