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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बृहद्भाष्य एवं व्यवहार-भाष्य तो आचार-सम्बन्धी विधि-विधानों से भरपूर हैं। पंचकल्प-महाभाष्य का कल्पविषयक वर्णन भी जैन आचारशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । बृहत्कल्प-लघुभाष्य में हिंसा-अहिंसा के स्वरूप की विशेष चर्चा है। इसमें तथा अन्य भाष्यों में जिनकल्प-स्थविरकल्प की विविध अवस्थाओं का विशद वर्णन है। दर्शनशास्त्र :
सूत्रकृतांग-नियुक्ति में क्रियावादी, अक्रियावादी आदि ३६३ मत-मतान्तरों का उल्लेख है। विशेषावश्यकभाष्य में प्रतिपादित गणधरवाद और निह्नववाद दर्शनशास्त्र की विविध दृष्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आवश्यक-चूणि में आजीवक, तापस, परिव्राजक, तच्चणिय ( तत्क्षणिक ), बोटिक आदि अनेक मत-मतान्तरों का वर्णन है। इसी प्रकार अन्य व्याख्याओं में भी थोड़ी-बहुत दार्शनिक सामग्री मिलती है। संस्कृत टीकाओं में इस प्रकार की सामग्री की प्रचुरता है। ज्ञानवाद :
विशेषावश्यकभाष्य में ज्ञानपंचक-मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के स्वरूप पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसी प्रकार इसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद का भी युक्तिपुरस्सर विचार किया गया है। बृहत्कल्प-लघुभाष्य के प्रारम्भ में भी ज्ञानपंचक की विशेष चर्चा है । नन्दी-चूर्णि में भी इसी विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । इसी प्रकार आचार्य हरिभद्रकृत नन्दोवृत्ति में भी ज्ञानवाद पर पर्याप्त सामग्री है । प्रमाणशास्त्र :
दशवैकालिक-नियुक्ति में अनुमान के प्रतिज्ञा आदि दस प्रकार के अवयवों का निर्देश है । इसी विषय का आचार्य हरिभद्र ने अपनी दशवकालिक-वृत्ति में विस्तार से प्रतिपादन किया है। प्रमाणशास्त्र-सम्बन्धी चर्चा के लिए आचार्य शीलांक एवं मलयगिरि की टीकाएं विशेष द्रष्टव्य हैं । कर्मवाद :
विशेषावश्यकभाष्य में सामायिकनिर्गम की चर्चा के प्रसंग में उपशम और क्षपक श्रेणी का तथा सिद्ध-नमस्कार का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने कर्मस्थिति समुद्घात, शैलेशी-अवस्था आदि का वर्णन किया है । बृहत्कल्प-लघुभाष्य के तृतीय उद्देश में हिंसा के स्वरूप-वर्णन के प्रसंग पर रागादि की तीव्रता और तीव्र कर्मबन्ध, हिंसक के ज्ञान एवं अज्ञान के कारण कर्मबन्ध की न्यूनाधिकता, अधिकरणवैविध्य से कम-वैविध्य आदि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है ।
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