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प्रथम प्रकरण नियुक्तियाँ और नियुक्तिकार मूल ग्रंथों के अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए उन पर व्याख्यात्मक साहित्य लिखने की परम्परा प्राचीन भारतीय साहित्यकारों में विशेष रूप से विद्यमान रही है । वे मूल ग्रंथ के प्रत्येक शब्द की विवेचना एवं आलोचना करते तथा उस पर एक बड़ी या छोटी टीका लिखते । विशेषतः पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की ओर अधिक ध्यान देते । जिस प्रकार वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए यास्क महर्षि ने निघण्टुभाष्यरूप निरुक्त लिखा, उसी प्रकार जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने प्राकृत पद्य में नियुक्तियों की रचना को। नियुक्ति की व्याख्या-पद्धति बहुत प्राचीन है। अनुयोगद्वारसूत्र में श्रुत, स्कन्ध आदि पदों का नियुक्ति-पद्धति से अर्थात् निक्षेपपूर्वक व्याख्यान किया गया है। यास्क महर्षि के निरुक्त में जिस प्रकार सर्वप्रथम निरुक्त-उपोद्धात है उसी प्रकार जैन नियुक्तियों में भी प्रारंभ में उपोद्धात मिलता है। दस नियुक्तियाँ :
आचार्य भद्रबाहु ने निम्नांकित ग्रंथों पर नियुक्तियाँ लिखी हैं : १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग, ५. सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कन्ध, ७. बृहत्कल्प, ८. व्यवहार, ९. सूर्यप्रज्ञप्ति और १०. ऋषिभाषित ।
इनमें से अन्तिम दो नियुक्तियाँ उपलब्ध नहीं हैं। शेष आठ उपलब्ध है। इन नियुक्तियों में आचार्य ने जैन न्याय-सम्मत निक्षेप-पद्धति का आधार लिया है । निक्षेप-पद्धति में किसी एक शब्द के समस्त संभावित अर्थों का निर्देश करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है । आचार्य भद्रबाहु ने अपनी नियुक्तियों में प्रस्तुत अर्थ के निश्चय के साथ ही साथ तत्सम्बद्ध अन्य बातों का भी निर्देश किया है । 'नियुक्ति' शब्द की व्याख्या करते हुए वे स्वयं कहते हैं : एक शब्द के अनेक अथं होते हैं किन्तु कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त होता है, भगवान् के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध था, इत्यादि बातों को
१. देखिए-अनुयोगद्वार, पृ० १८ और आगे
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